रक्षाबंधन पर आपके किस्से मेरी कहानी
वो मुझसे छोटा है लेकिन उसने इस बात को कभी दिल से नहीं माना। मेरी और उसकी खूब लड़ाई होती आज भी मेरे चहरे पर जो निशान हैं उसीके नाखूनों के हैं।
हम दोंनो कभी तो इतना लडते मां के अलावा कोई और संभालने वाला होता तो रोने लगता। टीवी जिसपर दो ही चैनल आते थे, उसका चैनल घुमाने वाला पहिया हमने घुमा घुमाकर तोड दिया था और उसके बाद काम पिलास से लिया जाता।
उसे हमेशा शक्तिमान देखना होता और मुझे डी डी टू पर आने वाला जनून, इतनी लड़ाई हो जाती कि बात हाथापाई से जूते चप्पलों पर आ जाती, गालियां बहुत आम हुआ करती थीं।
वो बीमार था और पापा उसे स्कूटर पर बैठाकर डाक्टर के ले गए, वहां से आने के बाद उसने बहुत लम्बी लम्बी हांकी, उसमें से एक बात ये भी थी मैंने पान खाया था, बहुत देर तक उसकी बात सुनने के बाद, मैंने अपना पैर उठाकर पूछ ही लिया, क्या ऐसा पैर खाया है, पैर कोई कैसे खा सकता है?
एक दिन बाहर खेलते समय गुटबाजी में उसने मुझे कोमल एंड ग्रुप से भिडा दिया और खुद डंडा लेने घर आ गया बड़ी मुश्किल से मैं जान बचाकर भागी।
मैं जब भी चावल बनाती आधे से ज्यादा खुद खाती वो और दोनों छोटे, मेरा विरोध करने की सोचते तो बोल देती मैंने बनाए भी तो हैं। उसका ललचाई नजर से मेरी प्लेट में देखना मुझे बहुत पसंद था।
उस दिन चावल खाते समय एक बंदर मेज पर आकर बैठ गया और मैं उसे बाहर बंदर के पास छोडकर अंदर वाले कमरे में छुप गई, उसका रोना सुनकर जब तक मां नहीं आईं वो मेरा गेट बजाकर रोता रहा। यारी बस तभी होती जब टीवी का एंटीना हिलाकर सिगनल पर पहुंचाना होता, वो एंटीना हमेशा उस छत पर लगा होता ।
जिस पर जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं थी वो ऊपर से पूछता, आया सिगनल और मैं कभी अंदर कभी बाहर जाकर उसे सूचना देती रहती, उसके अलावा मुझे कम ही याद है उसके मेरे बीच चीजें कभी सामान्य रही हों। जब भी वो कुछ नया चलाना सीखता टैस्ट ड्राइविंग के वक्त मुझे पीछे बैठा लेता, पापा का स्कूटर चलाते समय भी उसने मुझे पीछे बैठाया था और कांटों में गिरने के बाद उसने मुझे उठाना तो दूर की बात, मेरी तरफ देखा तक नहीं।
मां हमेशा कहती कि वो हमसे परेशान हो गई हैं, हम कुत्ते बिल्ली की तरह लड़ते हैं, बिल्ली की तो नहीं पता पर मेरे मन में ख्याल आता मां ने उसके लिए सही शब्द चुना है।
रात को छत पर सोने की बारी में वो अपने लिए अच्छी सी चद्दर औेर तकिया पहले ही कबजे में कर उसपर अपनी मोहर लगा देता।
कहीं जाने के लिए तैयार होने पर मुझे आज तक उससे ज्यादा किसीने नहीं टोका, मेरे पतिदेव ने भी नहीं ,”क्या पहन कर जा रही है? क्यों जा रही है? कितने बजे आएगी? कौन सी फ्रेंड है? घर कहाँ पर है? कपड़े बदलने की क्या जरुरत है? ऐसे ही चली जा। मैं छोड़ने चलूँगा। ये नहीं पहन कर जाएगी और मेरा एक ही जवाब रहता ,”अब मैं जा ही नहीं रही।”
हाँ यह सच है कि भाई बहन का रिश्ता मेरे लिए बचपन में कोई मायने नहीं रखता था। जब मर्जी गालियाँ देती और गालियाँ भी ऐसी जो आज मैं सोच भी नहीं सकती।
दादी हमेशा चिढ़ जाती ,” भाई को ऐसी गाली ना दे करें।” तो मैं जिद पर अड जाती ,” क्यों? जब ये बोल सकता है, तो मैं क्यों नहीं? ”
जैसे-जैसे समय गुजरता गया तो चीजें समझ आने लगी। दादी का शायद मकसद लड़का लड़की का भेद रहा हो लेकिन मेरे लिए अब भाई बहन का प्यार है।
रक्षाबंधन भी मेरे लिए बचपन में हमेशा ₹दस का लालच ही रहा था लेकिन आज हजार दो हजार का लालच फीका ही लगता है। राखी का अर्थ ही शायद अब समझ में आया है।
एक धागा बांध देना, जो प्रतीक होता है एक बहन के विश्वास का। हाँ प्रतीक है ये मेरे विश्वास का, मैं आधी रात को भी अगर अपने भाई से कहूंगी, मुझे तेरी जरूरत है तो वो सोचेगा नहीं। शायद इसीलिए ये एक त्यौहार बनाया गया होगा। बहन का अपने भाई के प्रति कृतज्ञता जताने का।
दो दिन बाजार जा चुकी हूँ लेकिन कोई राखी पसंद ही नहीं आती। पता नहीं क्या लेना चाहती हूँ मैं उसके लिए? महंगी से महंगी सस्ती से सस्ती राखियों पर नजर दौड़ाती हूँ, कुछ जचता ही नहीं, जैसे कि बाजार में लगी राखियों की होड़ में उनके लायक राखी ही नहीं बनी।
नाकाम कोशिश के बाद एक सुंदर सा धागा ढूँढना सच में एक अच्छा एहसास होता है, चलो उसको पसंद आएगी।
अब बहुत दूर रहता है वो यूएस में मैं यहां। अभी एक हफ्ते पहले ही मिलकर गया कौन कह सकता है मैं वहीं थी, जिसने जाते वक्त गाड़ी में बैठने से पहले, उसे छू लेने की इच्छा के चलते, उसके सर पर लगे छोटे से टीके को अपनी हथेली से फैल गया था कहते हुए, पोंछने का नाटक किया जबकि वह व्यवस्थित था।
वो अकेला ही था जिसने रसोई में आकर मुझसे पूछा था ,”गुड़िया तुझे लड़का पसंद तो है ना? ” हालांकि उसकी बात का कोई अस्तित्व नहीं था।
छोटा वाला कभी बॉस बनकर नहीं रहा क्योंकि वो ज्यादा छोटा है। उसको तो डांट भी देती हूँ। अभी फिलहाल अनफ्रेंड किया हुआ है क्योंकि मेरी पोस्ट पर उसने लिखा था,”दीदी, इतनी, बडी़ बडी़ बोरिंग पोस्ट कैसे लिख लेती हो?”
कुछ बातें जीवन के पड़ाव गुजरने के बाद ही समझ आती हैं, भाई जो तुम्हारे दर्द को एक पिता की तरह महसूस करेगा।भाई जो किसी भी मौके पर तुम्हारी दहलीज की शोभा बढ़ाने से पीछे नहीं हटेगा।
भाई जो कभी तुम्हारे ससुराल में तुम्हारे मायके की शान बनेगा। भाई जिसके होते मरते दम तक जब बहन कह पायेगी “मैं अपने भाई यहां चली जाऊंगी, ये मत समझना मैं बेघर हो जाऊंगी।”
भाई जो हर धमकी की शान होगा। बहन बांध देती है धागे को इतने सारे वचनों और आशाओं के साथ और वो भी जीवनभर उसे सार्थक करता हुआ चलता है।
स्वाती उर्फ गुड़िया के किस्से की कहानी