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हिंदी पत्रकारिता दिवस : आज के 50 वर्षों पर भारी है वो 1826 का डेढ़ वर्ष ।

राघव मिश्रा/बचपन में फिल्मों से देख कर हम पत्रकार उसे मानते थे जो खादी का कुर्ता और बगल में एक थैला टांगे साइकिल पर चलता था और जिसे सच लिखने के गुनाह में किसी गुंडों के हाथों बेरहमी से मरना पड़ता था। तब लगता था पत्रकारिता फौज की नौकरी से कम नहीं और एक पत्रकार एक सिपाही से कम नहीं। सच भी तो यही है, एक तरफ जहां एक सिपाही सरहदों की रक्षा करते हुए देश में शांति बनाये रखने के लिए संकल्पित होता है ठीक उसी तरह एक पत्रकार सच की रक्षा करने के लिए वचनबद्ध होता है। अगर फौजी सरहद पर लड़ते हुए शहीद होते हैं तो गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकार सच की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं। अपना ये भाषण रोक कर मैं ये बताना चाहूंगा कि ये भाषण मैं दे क्यों रहा हूं।

 

आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। ये दिन इसलिए मनाया जाता है क्योंकि 1826 को इसी दिन हिंदी के पहले समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन शुरू हुआ था। इस समाचार पत्र के संस्थापक और संपादक थे कानपुर के युगल किशोर शुक्ल। हर मंगलवार को ये साप्ताहिक समाचार कलकत्ता के कोलू टोला नामक मोहल्ले की 37 नंबर आमड़तल्ला गली से चल कर जन जन तक पहुंचाता था। अंग्रेजी प्रशासन के खोखले सच को हिंदी भाषा के माध्यम से सामने लाने की ये पहली कोशिश थी, लेकिन अफसोस ये ज्यादा कामयाब ना हो सकी। और 79 अंक प्रकाशित होने के साथ ही 1827 में इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। शुक्ल जी ने अपनी पीड़ा का व्याख्यान इस समाचार पत्र के अंतिम अंक में छपी इन दो पंक्तियों में कर दिया था

आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त

अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त

समाचार पत्र बंद होने का कारण था उन दिनों पत्रकारिता का गरीब (अब तो अखबारों को गरीब कहने के साथ ही एक हंसी छूट जाती है) होना। अखबार को किसी तरह का कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिला और इसके बिना अखबार का छप पाना संभव नहीं था। दूसरी तरफ अंग्रेजी सरकार ने शुक्ल जी के प्रयासों के बाद भी कोई डाक सेवा उपलब्ध ना कराई। नतीजा ये निकला कि हिंदी का पहला संचार पत्र मात्र डेढ़ वर्ष के भीतर ही बंद हो गया।

लेकिन अखबारों की सच्ची लगन को मानना पड़ेगा। जो हिंदी अखबार पहली बार पैसों के आभाव में बंद करना पड़ा था उसी ने आज अपना कद इतना बढ़ा लिया कि इसके लिए स्ट्रिंग ऑपरेशन हो रहे हैं, लाखों करोड़ों की घूस खायी जा रही है। वो खद्दर का कुर्ता, वो झोला, और वो साइकिल अब महंगे सूट, नोटों से भरे इम्पोर्टेड बैग और ए सी कारों का रूप ले चुके हैं। बड़े वाले पत्रकार मोटी रकम के लिए तो छोटे मोटे पत्रकार छोटे छोटे तोहफों के लिए प्राइवेट संस्थानों, राजनीतिक पार्टियों इत्यादि के लिए उनकी मनचाही खबर बना रहे हैं। जो बचे खुचे ईमानदार हैं उन्हें या तो डरा दिया जा रहा है या भिंड के संदीप शर्मा जिन्होंने अवैध रेत खनन पर स्टिंग ऑपरेशन किया, आरा के दैनिक भास्कर के पत्रकार नवीन निश्चल, इत्यादि जैसे पत्रकारों की तरह गहरी नींद में सुला दिया जाता है।

पत्रकार कलम का वो सिपाही है जिसका प्रथम कर्तव्य है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की रक्षा करना। दुनिया के किसी भी देश के उदय और उसकी प्रगति में पत्रकारों की अहम भूमिका रही है। भारत की आजादी के वक्त भी पत्रकारों ने महत्वपूर्ण किरदार अदा किया है, जिसे आज भी भुलाया नहीं जा सकता। साथ ही समाज में जाति-धर्म और संप्रदाय की गहरी खाई को भी कई बार पत्रकारों ने भरने का काम किया है। एक वक्त था जब पत्रकारों के हाथ में दुनिया की नब्ज होती थी। वो खुद को दुनिया के ऊपर पाते थे क्योंकि वो जो जानकारी इकट्ठा कर के लाते वो किसी अन्य के पास नहीं होती थी। साइकिल पर सवार पत्रकार को आज कार में बैठे संपादक से ज्यादा मान सम्मान दिया जाता था।

लेकिन आज हम ‘उदंत मार्तंड’ से आज के नामी समाचार पत्रों तक के सफर को विकास मानें या विनाश ? आज भी इन अखबारों की 50वीं वर्षगांठ पर ‘उदंत मार्तंड’ के डेढ़ साल ज्यादा भारी पड़ते हुए नजर आएंगे। युगुल किशोर शुक्ल को क्या अपनी घर गृहस्थी की चिंता नहीं रही होगी ? फिर क्यों वो कानपुर से कलकत्ता चले गए ? मात्र एक छोटे से साप्ताहिक अखबार के प्रकाशन के लिए ? नहीं, सिर्फ और सिर्फ सच के लिए। भले ये सच ज्यादा दिन नहीं चल पाया लेकिन शुक्ल जी को संतोष मिला होगा क्योंकि उन्होंने भले ही 50 वर्ष पूरे नहीं किये किन्तु अपने डेढ़ साल में उन्होंने पत्रकारिता की क्रांति की मजबूत नींव रख दी जिसे आगे चल कर राजा राम मोहन राय और गणेश शंकर जैसे निडर पत्रकारों ने और मजबूत किया। मगर उसका क्या फायदा जब उस मजबूत नींव पर खोखला ढांचा तैयार कर दिया गया हो।

सच बोलना नहीं और जो बोलना चाहे उसे खामोश कर देना ये भला कैसी पत्रकारिता है। पत्रकारों को स्वीकार करना होगा कि उनका दायित्व सीमा पर खड़े सिपाही से कम नहीं है। सिपाही जान हथेली पर रख कर लड़ता है। फौज में जाने से पहले उसे पता होता है कि मृत्यु कभी भी उसे अपनी गोद में भर कर उसके परिवार से दूर ले जाएगी। इसी तरह पत्रकारों को पत्रकारिता का चयन करने के साथ ही ये सोचना चाहिए कि उन्हें हर हाल में सच की रक्षा करनी है। पत्रकारिता समाज का आईना है, इस आईने पर डर और घूसखोरी की धूल ना जमने दी जाए। अगर ऐसा ना हुआ तो आने वाले समय में हिंसा का रूप इतना विभत्स होगा कि लोग छोटे मोटे सच बोलने से पहले भी सौ बार सोचेंगे।

आज पत्रकारिता दिवस पर पत्रकारों को शुभकामनाएं देने से ज्यादा इस बात का आभास कराना जरूरी है कि जिस पत्रकारिता के बल पर वो खुद की समाज में एक अलग पहचान बताते हैं उस पत्रकारिता को अपने अंदर जिन्दा रखने के लिए बहुत बड़ा जिगर चाहिए, वो बच्चे जो पत्रकारिता में आना चाहते हैं उन्हें ये बात समझाई जानी चाहिए कि ये पत्रकारिता है पत्तलकारिता नहीं, पत्रकारिता चाटुकारिता और मुफ्त के मिले उपहारों का नाम नहीं, पत्रकारिता नाम है उस खौलते हुए सच का जिसकी छींटों से झूठ की हड्डियाँ तक गल जाएं। अगर आपमें भी ऐसा ही पत्रकार मौजूद है तो आपको हिंदी पत्रकारिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए हम ये कामना करते हैं कि आपमें पत्रकारिता हमेशा जीवित रहे।

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