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और उसने अटल जी को साम्प्रदायिक राजनेता और बेहद ख़राब कवि घोषित किया ।

वे बौद्धिक उदारवादी हैं। बौद्धिक उदारवाद दिल्ली में फैला हुआ एक संक्रामक रोग है, जिससे बच पाना सरल नहीं।वे भी इससे ग्रस्त हैं।

जब अटल जी के प्राणान्त की घोषणा की जाने वाली थी, तब उन्होंने एक स्टेटस अपडेट किया, ।जिसमें अटल जी को साम्प्रदायिक राजनेता और बेहद ख़राब कवि घोषित किया

अव्वल तो ये कि तिरानवें वर्ष का एक वयोवृद्ध, जो अंतिम सांसें गिन रहा है और ना केवल भारत का पूर्व प्रधानमंत्री रह चुका है, बल्कि सावर्जनिक राजनीति के अहातों में समादृत और सर्वमान्य भी रहा है, उसके बारे में, उस अवसर पर, वैसी टिप्पणी करना एक अत्यंत ओछे चरित्र का परिचायक है।

दूसरे, अटल जी को ख़राब कवि बताना उस बौद्धिक दम्भ की चुग़ली करता है, जो ना केवल भारतीय वाचिक कविता की छन्दबद्ध परम्परा से अनभिज्ञ है, बल्कि वृहत्तर जनसामान्य के बीच लोकप्रिय गीति-शैली के प्रति हिक़ारत का भाव भी जताता है।

तीसरे, अटल जी को साम्प्रदायिक कहना? और वो भी एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति वाले देश में, जिसमें जाति और धर्म से जुड़ी अस्मिताओं का दोहन ही सभी दलों का मूलमंत्र हो, किसी एक का नहीं, उसमें अटल जी जैसे हरदिलअज़ीज़ व्यक्ति को, उनकी मृत्यु के क्षण में वैसा कहना?

यह कहां से आया?

यह उस बीमारी से आता है, जिसका नाम बौद्धिक उदारवाद है। यह एक कैंसर है। यह आपको सीमाहीन रूप से संवेदनशून्य और निर्लज्ज रूप से पक्षपाती बना देता है।

तिस पर तुर्रा यह कि यह तो हमारा सजग आलोचकीय विवेक है!

उनकी उस पोस्ट पर एक समुदाय विशेष की महिला ने एडगर एलन पो को उद्धृत करते हुए टिप्पणी की, जिसका लब्बोलुआब यह था कि हमें अपने आलोचकीय विवेक को सदैव सजग रखना चाहिए, चाहे जैसी परिस्थिति हो और चाहे जिससे सामना हो।

एकदम दुरुस्त बात थी!

मैंने उन महिला से पूछा, क्या आपका यही आलोचकीय विवेक ईश्वर, उसके दूत, पवित्र पुस्तक, मज़हबी नियम आदि के प्रति भी सजग रहता है?

प्रश्न का उत्तर देना तो दूर, मेरा कमेंट ही डिलीट कर दिया गया।

यह बौद्धिक उदारवाद है! थोथा, सतही, धूर्त और निर्लज्ज!

उन मित्र ने अटल जी के बारे में वह टिप्पणी क्यों की और उनकी समुदाय विशेष वाली महिला मित्र ने उसका अनुमोदन क्यों किया, यह समझना कठिन नहीं है।

अटल जी भारतीय जनता पार्टी के नेता जो थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध जो थे, भारतवर्ष और हिंदू धर्म के प्रति गौरव की भावना से जो भरे रहते थे, यह बौद्धिक उदारवाद को उनके प्रति घृणा के भाव से भरने के लिए पर्याप्त है।

किंतु यहां मेरी चिंता दूसरी है।

मेरी चिंता बौद्धिक सातत्य की है, नैरंतर्य की है, शृंखलाबद्ध चिंतन की है, जिसे कि अंग्रेज़ी में कंसिस्टेंसी और कंटीनियम कहेंगे।

मसलन, यह पूरी तरह से सम्भव है कि किसी व्यक्ति का धर्म और राष्ट्र नामक अवधारणाओं में विश्वास ना हो। वह स्वयं को अनीश्वरवादी और विश्व-नागरिक मान सकता है और अटल जी के कृतित्व को महत्वपूर्ण मानने से इनकार कर सकता है, इसका उसे पूरा अधिकार है। अलबत्ता मृत्युशैया पर उनकी भर्त्सना करने का नैतिक अधिकार तो ख़ैर उसे तब भी नहीं होगा।

किंतु क्या हो, जब यही अनीश्वरवादी और विश्व-नागरिक व्यक्ति समुदाय विशेष के बारे में प्रश्न पूछे जाने पर घुटने टेक दे और आपकी टिप्पणियों को ही हटा दे? अब यह किस क़िस्म की बौद्धिकता है?

एक बहुत ही जेन्युइन और सीधा-सा सवाल है-

भारत के बुद्धिजीवी, मीडियाकर्मी, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता एक स्वर से, अहर्निश हिंदू धर्म और भारत राष्ट्र के पूर्वग्रहों में न्यस्त ख़तरों के प्रति लोकमानस को सचेत करते रहते हैं। किंतु आख़िरी बार आपने कब इन्हें समुदाय विशेष के विरुद्ध वैसा ही एक बौद्धिक अभियान चलाते देखा था?

और अगर उन्होंने अभी तक वैसा कोई बौद्धिक अभियान नहीं चलाया है तो क्यों नहीं चलाया है?

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आख़िर समुदाय विशेष दुनिया और भारत की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। इस समुदाय के लोगों का धर्म, राष्ट्र, प्रगतिशीलता, मानवाधिकार, पर्यावरण के प्रति क्या दृष्टिकोण है, इस पर समस्त संसार का भविष्य निर्भर करता है।

उदारवादी बौद्धिकता इस प्रश्न पर आकर ठिठक क्यों जाती है? ना केवल ठिठक जाती है, बल्कि उल्टे समुदाय विशेष के नैरेटिव को पुष्ट करते हुए स्वयं की जातीय परंपरा से घृणा क्यों करने लग जाती है? किस बात का उसे भय है? किस बात से उसे द्वेष है? उसकी मंशा क्या है? इन प्रवृत्तियों के मूल में कौन-सी हीनभावना पैठी हुई है? इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक हो चला है।

जब आप ये प्रश्न पूछते हैं तो आपको समुदायविशेषोफ़ोबियक कहा जाता है! नस्लवादी, हिंसक, नफ़रती, साम्प्रदायिक आदि इत्यादि कहकर पुकारा जाता है और आपके प्रति घृणा-प्रदर्शन का सामूहिक उत्सव मनाया जाता है। किंतु क्या हमें ये प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं है? क्या समुदाय विशेष सभी प्रश्नों के परे है? क्या भारत में कोई ब्लॉस्फ़ेमी क़ानून लागू है, जिसके तहत ईशनिंदा क़ानूनन प्रतिबंधित है? या क्या ऐसा है कि अटल जी की आलोचना की जा सकती है, किंतु समुदाय विशेष के कथित ईशदूतों की आलोचना नहीं की जा सकती? तब यह प्रगतिशील उदारवाद है या बुर्क़े की ओट में छद्म बौद्धिकता है?

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भारतभूमि के निर्विवाद और लोकमान्य महापुरुष श्री अटल बिहारी वाजपेयी का उनकी मृत्युशैया पर उपहास उड़ाने के पीछे कौन-सी नीयत काम करती है? इस प्रश्न का उत्तर भारत-देश को अब प्राप्त करना ही होगा। बौद्धिक उदारवाद ने अटल जी के उपहास का नंगानाच करके अक्षम्य पाप किया है! उसके छलावरणों को उतार फेंकना ही आज की तारीख़ में सबसे बड़ा युगधर्म है। अस्तु!

About Raghav Mishra

Raghav Mishra is a freelance journalist, has established himself as a young journalist in the field of journalism, Born in 1988 Raghav Mishra is a resident of Latouna village in Godda district of Jharkhand state, he started maihugodda digital media in 2012. Since its inception, since then, maihugodda has been continuously touching new heights everyday. Raghav Mishra's early studies were written in Godda district. He liked to engage with technology since childhood and kept exploring new things everyday. As of today, Raghav Mishra is also working as a technical expert on several big digital news channels. He loves to catch up on his technology and do creative work daily. Raghav Mishra is the founder of "maihugodda" digital news channel.

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