व्यवहारिक रूप से देखा जाता है कि रिश्तेदारी तीन की है या तेरह की लेकिन गोड्डा में एक नया सम्बन्ध देखने को मिला 9 का 18।
हुआ यूं कि एक नगर क्षेत्र के बाहर के एक नेता जी मिल गए। पुराना संबंध भी था इसीलिए बातचीत भी शुरू हो गयी। मैंने पूछा भैया आज गोड्डा में?
उन्होंने कहा कि नेताजी के साथ आये है “मजबूरी° में।
मैंने पूछा मजबूरी?
तो वो बड़े निश्चिंत होकर बोले कि हाँ नेता जी को आदेश मिला था पार्टी के बैठक में शामिल होने के लिए तो इसीलिए आ गए।
मैं पूछ दिया भैया तो इसमें मजबूरी क्या हुआ?
वो सुलगते आग को अंदर करते हुए बोले कि जब दिल ना चाहे और कोई काम करना पड़े तो उसे मजबूरी ही कहते है।
पार्टी का उम्मीदवार मेरा भी पसंदीदा हो ये कोई जरूरी तो नही लेकिन जब वही प्रत्याशी मेरी पार्टी के खिलाफ गलत कर चुका हो तो वो कम से कम मेरा चहेता तो नही हो सकता है फिर भी मैं पार्टी के निर्देश पर चुनाव प्रचार करूँगा लेकिन मुझे बस ये देखना है कि जिसके लिए मुझे और मेरे प्रत्याशी को उनके द्वारा विरोध सहना पड़ा उसपर उनका क्या स्टैंड है ।
2009 में गठबंधन में रहने के बावजूद जो इंसान पार्टी को छोड़ कर अपने जात और रिश्तेदार के लिए किसी अन्य पार्टी से समझौता कर विपक्षी दलों को फायदा पहुँचाया हो वो कैसे अपने लिए मुझसे सहयोग की अपेक्षा कर सकता है
2009 में आज के प्रत्याशी चुनाव हार गये थे जबकि जीते हुए प्रत्याशी इनके रिश्तेदार थे।
आज सारा समीकरण बदल गया। चुनाव अब दलीय पद्दति से होने लगा। चुनाव चिह्न मायने रखने लगा। आज अगर वही पुराने रिश्तेदार एवम हितैषी खुदा न करे अगर सामने पहुंच कर किसी दुश्मन दल का पर्चा थमा दें तब कैसा लगेगा?
यानी इस चुनाव में 2009 के विधानसभा का बदला भी 2018 में लिया जा सकता है।
नेता जी भले भूल भी जाये लेकिंन कार्यकर्ता बहुत चीजों को बहुत दिनों तक याद रखते है।
अभिजीत तन्मय