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कम्बल ओढ़ कर घी पी रहे हैं महाशय !!

शहर में इन दिनों एक महाशय की चर्चा इस कदर छा गई है,जैसे लगता है कि महानुभाव ने कोई शेर को मारा हो,लेकिन बेचारे ने तो अपनी शिर की उड़ी हुई बाल को वसूली करके उगाने का प्रयत्न कर अपने अपने शिर की चांदी को तसल्ली दे रहे हैं ।कहने को तो ये महानुभाव डा.भी हैं ,और हों भी क्यों नही भाई,पीएचडी जो की है ।लेकिन महोदय अपने पीएचडी की डिग्री का उपयोग बड़ी ही प्रसन्नता के साथ भीख मांगने में करके डिग्री को भी सम्मान दे रहे हैं,वैसे तो ये बड़े ही शांत किस्म के हैं और अपनी बिरादरी से थोड़ा कटकर रहना ज्यादा पसन्द करते हैं क्योंकि इन दिनों इनकी नजर भू धातु पर पर जा टिकी है,सुबह उठकर पदाधिकारियों के पास हजूरी करना,और जहाँ तहाँ भटक भटक कर वसूली करना इनके अधिक्तम स्पर्धाओं में शामिल हो चूका है।इनकी उपलब्धि ये भी है कि इन्हें लिखना नही आता लेकिन दिमाग देखिये इनका कितना तेज चलता है दूसरों की लिखी कहानियां इन्हें अगर मिल जाए तो चुरा कर अपने नाम से प्रकाशित करने की कला इनके अंदर कूट कूट कर भरी हुई है,लिखने से ज्यादा इन्हें दूसरों की लिखी अच्छी कहानियों को छांटने में बड़ी ही दिलचस्पी है,क्योंकि ये साहब पीएचईडी कर के आए हुए हैं न ,ये संताल परगना की धरती पर पहली बार किसी ब्रांड के मठाधीश बनकर पहुंचे हैं,जब मठाधीश हैं ही तो ज्ञानी तो होंगे ही इसलिए जब इन्हें लिखने की सूझती है तो रात में भी बिठा बिठाकर अपने बिरादरी के लोगों से सहयोग लेकर अपना कोरम पूरा करते हैं ।दलाली और वसूली की सीमा को लांघने वाले ये महानुभाव ने अपने जुते को चमकाने के लिए पोलिस नही बल्कि चाट कर चमकना ज्यादा बेहतर समझते हैं,अपनी अतृप्त आत्मा और अपने शिर के बालों की चिंता लिए ये दर दर भटक रहे हैं,और इनके चमचमाती शिर को देख लोग इनके शिर में तेल तो दे देते हैं,लेकिन एक गाना जरूर गुनगुनाते हैं …पल भर के लिए कोई इन्हें प्यार कर ले झुठा ही सही…..अपनी भ्रष्टतम आचरण की पराकाष्ठा पर बैठ ये लोगों की चुगली करना भी शुरू कर दिए हैं लेकिन ये जो पब्लिक है न वो सब जानती है……. …कहती है …ये तो कम्बल ओढ़ कर घी पी रहे हैं,इनकी खासियत है कि कहीं ये बेज्जत नही होते क्योंकि इनको अभी तक शहर में इज्जत ही नही मिली,इनकी क्रियाकलाप तो मानो वाकई पीएचडी को परिभाषित कर रही हो,आपको जानकर बड़ी ही ख़ुशी होगी की ये सारे कारनामे वो इसलिए कर रहें है ,ताकि शेन वॉर्न की तरह विदेश जाकर बाल उगा सके अब इन्हें कौन समझाए कि, बेचारे को भासमोल बचपन से ही लगाना था ,इतनी तकलीफ भी नही उठानी पड़ती!

इस मठाधीश को बुझव्वल लिखने का बड़ा सौख है लेकिन शहर में नये आने से उन्हें क्या पता था की इसी शहर में ह्पकने वाला लकड़बग्घा भी रहता है ,अब बेचारे की तो पेंट गीली हो रही है ,की टाइगर ने भी अंदर से रुला दिया है !

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