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सोहराय को लेकर आदिवासियों में उमंग /आदिवासियों का सबसे बड़ा पर्व है बंदना !

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संथाल परगना के संथाल बहुल आदिवासी गांव में महुए की फूल की शराब की नशा और नए चावल की हडिया की सुरूर में झूमते ,संथाल परगना के आदिवासी गांव औऱ गांव से निकलती मांदर, टमाक ,झांझर और बांसुरी की मिश्रित तरंगों से वातावरण मादक को उठती है ।,दे जाती है संथाल संस्कृति में रची बसी अपने पवित्र पर्व सोहराय का संदेश। इस पर्व को बंदना भी कहा जाता है।
भाई बहन के प्रेम का प्रतीक ,प्रकृति एवं पशु के प्रति श्रद्धा एवं अपने देवी-देवताओं के प्रति विश्वास का पर्व है सोहराय ।सोहराय पर्व फसल काटने के बाद पूस माह में 9 जनवरी से 14 जनवरी तक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है ।इस अवसर पर प्रत्येक संथाल परिवार अपने बेटी, बहन एवं रिश्तेदारों को सादर आमंत्रित करती है। खासकर यह पर्व भाई बहन के पवित्र रिश्ते को अपने में समेटे हुए हैं क्योंकि विशेष रुप से भाई ही बहन को आमंत्रित करने जाते हैं ।
छह दिनों तक चलने वाले इस पर्व में संथाल लोग ना केवल अपने देवी देवताओं एव इष्ट देवी का पूजा करते हैं ,बल्कि गाय-भैंस-बैल हल अन्य कृषि औजारों की भी पूजा करते हैं। प्रत्येक दिन का अपना अलग अलग महत्व नामांकरण होता है।

WhatsApp Image 2018-01-06 at 22.04.36उम हिलाक या उम माहा:-

संथालों के इस महान पर्व सोहराय के पहला दिन को उम हिलाक या उम माहा कहा जाता है । इसका अर्थ स्नान का दिन होता है। इस दिन सभी लोग अपने घर की लिपाई पुताई करते हैं, कपड़े साफ करते हैं और स्नान करके गोड टांडी जाते हैं । इसके पूर्व रात्रि में नायकी धार्मिक विधि-विधानों का पालन करते हुए जमीन पर चटाई बिछाकर सोते हैं उम माहा के दिन नायकी 3 मुर्गे को लेकर गॉड टांडी जाते हैं तथा गोडैत प्राय: सभी घरों से एक मुर्गा लेकर गॉड टांडी पहुंचते हैं। उधर गांव के सभी गणमान्य लोग मांझी, परानिक, जोगमांझी, आदि स्नान एवं नव वस्त्र धारण कर गॉड टांडी में सोहराय के स्वागत के लिए पहुंचते हैं। जहां नायकी गाय के गोबर से लीप कर चिकसा से 14 पिण्ड बनाकर उसे सिंदूर से घेरकर मंत्रोचार के साथ अपने देवी देवताओं इष्ट देव मरांग बुरू, जाहेर एरा आदि के नाम पर मुर्गे की बली चढ़ाते हैं । जाहेर एरा, गोसाईं एरा, ठाकुर ठकुराइन, परगाना, बोंगा, मांझी हाड़ाम के नाम से पुजा अर्पित करते हैं ।इसके बाद पोचोय सभी देवताओं के नाम अर्पित करता है ।एक अंडा को सिंदूर से लपेट कर रख दिया जाता है ।तब गांव के मांझी सभी को सोहराय पर्व के अवसर पर शांति ,सद्भाव वापसी प्रेम को बनाए रखने के लिए उपदेश देते हैं । गोडैत द्वारा घर-घर से चावल हल्दी नमक मांग कर लाए गए सामानों से और मुर्गो को मिलाकर खिचड़ी बनाई जाती है ।सब मिल जुल कर खाते हैं। मांदर, नगाड़ा एवं झालं के साथ नाचते गाते हैं ।इसी क्रम में अगल-बगल के पशु चराने वाले को गाय ,भैंस ,बैल के साथ बुलाया जाता है। वह पिंड पर रखे अंडे को फोड़वाया जाता है ।जो गाय बैल या भैंस अंडे को फोड़ देता है उसे भाग्यशाली समझा जाता है ।गॉड टांडी में सभी लोग नाचते गाते हुए गांव की ओर प्रस्थान करते हैं। घर-घर जाकर पोचोय पीते हैं ।रात में सभी पुरुष गायों की आराधना करते हैं जिसे ‘गाय जगाव’ कहते हैं।

WhatsApp Image 2018-01-06 at 22.02.57दकाय हिलाक या बोंगाक माहा:–

दूसरे दिन को दकाय हिलाक या बोंगाक माहा कहा जाता है। जिसका अर्थ है पूजा का दिन। महिलाएं सुबह से ही नए सुप में धान , अरबा चावल, दूब की घास सजाकर गौशाला में दिया जलाकर मवेशियों का चुमावन करती है और उन से विनती करती है । पुरुष लोग अपने पशु एवं कृषि औजारों को पोखर में जाकर साफ करते हैं। घर का मालिक उपवास कर अपने इष्ट देव की पूजा पाठ करते हैं गोहाल में सूअर या मुर्गा की बली चढ़ाते हैं । फिर उसका खिचड़ी बनाकर पोचोय के साथ आंगन में अपने देवता और पितृव्यों को अर्पित कर प्रसाद स्वरूप सभी पुरुष खाते हैं। यह प्रसाद महिलाओं के खाने को वर्जित है ।प्रसाद के बाद सभी लोग कुल्ही में नाचते गाते हैं।

खूंटाव बांधना:—

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तीसरे दिन को खुटाव बांधना या खुटोड़ माहा कहा जाता है। इस दिन मवेशी का घर झाड़ू से नहीं बुहारा जाता है। मवेशियों को स्वच्छ जल से स्नान करा कर सींगो में सरसों तेल एवं सिंदूर लगाया जाता है। प्रत्येक घर के सामने जोग मांझी खूंटा गड़वाता है। बैल के गले में पुआ पकवान बांधकर कर खूंटे में मजबूत रस्सी से बांध दिया जाता है ।तब पुरुष लोग प्रत्येक खूटे के पास जाकर बैलों की स्तुति और आराधना का गान करते हैं ।इस अवसर पर ‘पयकाहा नाच ‘का भी आयोजन किया जाता है तथा नगाड़ा बजा कर पशु को हड़काया जाता है ।इस अवसर पर सभी लड़के और लड़कियां नाच में मशगूल रहते हैं।

जाले महा :–

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चौथा दिन को जाले महा कहा जाता है । अन्य दिनों की भांति गांव के सभी पुरुष और महिलाएं युवक और युवतियां सुबह जगते ही अपने अपने कामों में हाथ बटाते हैं । इस दिन गांव में लोग नाचते गाते समाज के पदधारकों के घर जा कर दो दो मुट्ठी मुरी और दो दो दोना पोचोय वसूल करते हैं। प्रत्येक घर जाकर तमाशा दिखाकर सभी का मनोरंजन करते हैं ।इस दौरान नाचते-गाते कोई भेष बदलकर जादूगर ,वैद्य, ढोंगी, जोकर आदि बनते हैं।

फोटो :-सोहराय का आनंद लेते नेता व पदाधिकारी 

 

 

हाकोकाटकोम माहा:–

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इस दिन को हाकोकाटकोम माहा कहा जाता है । अर्थात मछली केकड़ा पकड़ने का दिन होता है ।इस दिन सभी लोग नदी नाले तालाब में मछली, केकड़ा आदि पकड़ने जाते हैं। रात में परिवार के साथ स्वादिष्ट भोजन करते हैं एवं नृत्य संगीत का आनंद लेते हैं।

बेझा हिलाक:–

छठे दिन को बेझा हिलाक कहा या शिकार का दिन बोला जाता है। यह 14 जनवरी होता है इसलिए संथाली में भी इसे सकरात बोला जाता है ।छठे दिन पुरुष लोग घर में भोजन कर अपने-अपने तीर धनुष ,कुल्हाड़ी, भाला ,बरछा के साथ आसपास के जंगल में शिकार करने जाते हैं ।जंगल में शिकार किए गए मांस में सभी परिवार में बांट दिया जाता है ।घर वापस आने पर महिलाएं पुरुष का पैर धोकर अंदर करती है। जंगल से लाए गए पत्तल में खाद्य सामग्री एवं पत्तल की कटोरी में पोचोय रख कर पूजा कर सभी खाते पीते हैं ।शाम को लोग नगाड़ा मांदर बजाते हुए बेझा टांडी में जमा होते हैं ।घर घर से तहसील किया हुआ पकवान आदि पूजा स्थल मांझी थान में अर्पित किया जाता है ।उसके बाद बेझा टांडी में एक केला का धड़ काट कर गाड़ दिया जाता है। उसमें एक पीठा ( रोटी ) रख दिया जाता है ।उसके बाद जोग मांझी सभी ग्रामीणों को अपने तीर धनुष से निशाना लगाते हैं। जो युवक पीठा में निशाना लगा देता है उसे सम्मान देता है ।उसके बाद सभी पुरुष महिला एकत्रित होकर नाच गान करते हैं और सोहराय पर्व का समापन हो जाता है।

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इस प्रकार मानव जीवन और प्रकृति के बीच अन्योन्याश्रय संबंध को परिलक्षित करता सोहराय पर्व गॉड टांडी से शुरू होता है और बेझा टांडी में समाप्त होता है। प्रकृति पुत्र द्वारा मनाया जाने वाला यह छह दिनी उत्सव उनके अनादि सभ्यता की निरंतरता की गाथा का एक स्वर्णिम अंश है जो आज भी अक्षुण्ण है। इस पर्व में अपने देवी-देवताओं से लेकर पालतू जानवरों की पूजा की जाती है और अपने पूर्वजों की पूजा की जाती है ।सभी लोग अपने अपने दुख दर्द, बैर भाव, आपसी दुश्मनी को छोड़कर आपस में मिलजुल कर सोहराय मनाते हैं ।यह त्योहार एक प्रेम सूत्र में बांधते हैं ।यह अमीर गरीब, ऊंच-नीच भावना को मिटा कर आपस में प्रेम की भावना जगाती है। उल्लास से परिपूर्ण इस पर्व में जीवन की खुशियां और मृदुल तत्वों का सुंदरतम अभिव्यक्ति देखने को मिलता है।

संपादक की कलम से ……

About Raghav Mishra

Raghav Mishra is a freelance journalist, has established himself as a young journalist in the field of journalism, Born in 1988 Raghav Mishra is a resident of Latouna village in Godda district of Jharkhand state, he started maihugodda digital media in 2012. Since its inception, since then, maihugodda has been continuously touching new heights everyday. Raghav Mishra's early studies were written in Godda district. He liked to engage with technology since childhood and kept exploring new things everyday. As of today, Raghav Mishra is also working as a technical expert on several big digital news channels. He loves to catch up on his technology and do creative work daily. Raghav Mishra is the founder of "maihugodda" digital news channel.

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