उसने पूछा
क्या तुमको अच्छा लगता है
अपने शब्दों को ऐसे बेचना
क्या ऐसा नहीं लगता तुम्हें
जैसे बेच रहे हो अपना ही बच्चा
मैं हंस दिया
वो हैरान थी
मैं मुस्कुरा रहा
वो परेशान थी
मैने कहा
पहले मुझे भी
लगता था यही
अपने गढ़े शब्दों को
बेचना बिल्कुल नहीं सही
मगर फिर एक दिन
दिखा मुझे एक मज़दूर
जो तोड़ रहा था हथौड़े से
अपनी किस्मत में लगी जंग को
पोंछ रहा था बार बार
पसीने की वजह से बह रहे
अपनी त्वचा के रंग को
तभी देखा बगल में बेटा उसका
जो कोई चौदह से पंद्रह का सुझा रहा था
जो तोड़े हुए पत्थरों को सर पर
ढो कर ले जा रहा था
और अपने बाप से ज़्यादा पसीना
वो नए ज़माने का
पुराना लड़का बहा रहा था
मैने मज़दूर से पूछा कि क्या
तुमको नहीं है प्यार अपनी संतान से
क्या तुमने नहीं सीखा कुछ भी
शहरी इंसान से
क्या तुमको नहीं लगता
कि ये उम्र है उसकी
कुछ नया सीखने और सिखाने की
कुछ नये कारनामे कर के दुनिया को दिखाने की
मज़दूर ने फटी हुई दरारों को फैलाते हुए
अपने सूखे होंठों को खोला
और लबों पर पीड़ा से भरी
मुस्कुराहट सजाते हुए बोला
कि मन किसका नहीं होता
अपनी औलाद के कल को बेहतर बनाने का
किसका दिल नहीं करता ज़माने
के साथ कदम से कदम मिलाने का
मगर मजबूरी नाम का जानवर कुछ
कल के संपनों को
अपने पंजों से खरोंच देता है
फिर इंसान बेबसी में
अपने बच्चे का बच्चपन
तक भी बेच देता है
इसकी माँ एक भयानक बीमारी से
दिन ब दिन होती जा रही बेजान है
ग़ौर से देखो तो लगता है कि
जैसे अब कुछ दिनों की ही मेहमान है
मेरी मजदूरी से घर का चुल्हा
बा मुश्किल से जलता है
मेरा बेटा ही है जिसकी कुर्बानी से
उस बीमार की दवाओं का खर्च चलता है
क्या तुम समझी की मैं क्या
समझाना चाहता हूँ
मजदूर के किस्से को सुना कर
क्या बताना चाहता हूँ
ये मजबूरी नाम का जानवर
बड़ा निर्दयी होता है
ये हंसता है ठहाके मार कर
बेबस इंसान रोता रहता है
देह बिक जाती है औरत की
बच्चपन बच्चे का नीलाम हो जाता है
अपना कोई भी हुनर बेच देता है
जब इंसान परेशान हो जाता है
और वैसे भी इस बड़ी मंडी में
पनीर से ज़मीर तक सब बिकता है
वो हर शख्स झूठा है जो शक्ल से
बड़ा सच्चा सा दिखता है
उसकी झुकी नज़र से समझ गया
वो मेरे कहने का मतलब जान गई है
ज़मीर बेचने से अच्छा है शब्द बेचना
इस बात को अब वो भी मान गई है ।
धीरज झा की कलम से