अभिजीत तन्मय/पिछले कई सालों से फेसबुक और मीडिया से जुड़ा हुआ हूँ। कोई ऐसा दिन नही है जब बलात्कार की कोई खबर नही सुनता हूँ। कभी निर्भया कांड तो कभी कठुआ कांड तो अब अलीगढ़ कांड। बलात्कार हमेशा से ही नपुंसक के द्वारा मर्दानगी दिखाने का एक खेल रहा है जबकि मर्द तो औरतों की इज्जत बचाने के लिए जाने जाते है।
आज इंसान के अंदर का हैवानियत या छुपा हुआ जानवर इस कदर हावी हो गया है कि समाज अब खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा है।
अफसोस कि बात ये है जिस देश मे नारी के रूप में देवियों को पूजा जाता है और छोटी छोटी बच्चियों में माँ दुर्गा का रूप मानकर पूजते है उस देश मे ऐसी घटना अब आम हो गयी।
अब बेटी न नवरात्रि में सुरक्षित है और न ही पाक रमजान में महफूज है।
पूर्व में कोख में जब कोई बाप अपनी बेटी को मार देता है तब उसे अपने वंश की चिंता होती थी लेकिन अब उसे अपनी बच्ची की शिक्षा,शादी या दहेज की चिंता नही होती है क्योंकि सरकारी योजनाओं के लाभ से अब बहुत कुछ आसान हो जाता है उसके बावजूद भी देश मे जिस तरह की स्थिति है उससे अब हर पिता डरने लगा है।
जब कोई बाप अपनी फूल सी बेटी को इस हाल में देखा होगा तो कैसा लगा होगा उसे की मैं उसकी रक्षा नही कर सका।
तुतला कर बोलने वाली बच्ची की वो दर्दनाक चींख जब जेहन में आता होगा तो किस तरह उसका करेजा फट जाता होगा।
तीन साल की बच्ची के साथ हैवानियत की सारी हदें पार।
पोस्टमॉर्टम करने वाला डॉक्टर भी उस दृश्य को देखकर अपने आप को संभाल नही पाया होगा। उसके रिपोर्ट को लिखते समय हाथ जरूर काँप रहा होगा लेकिन वो हैवान आखिर किस मिट्टी के बने होते है जिन्हें किसी मासूम का न दर्द न आंसू न चींख सुनाई दिया?
अब समय आ गया है जब कुछ कठोर निर्णय सरकार और सुप्रीम कोर्ट को लेने पड़ेंगे जिसमे ऐसे राक्षसों के लिए सीधे मृत्युदंड की प्रावधान किया जाना चाहिए।
छोटी उम्र की बच्चियों में आखिर क्या दिख जाता है कि इंसान के अंदर का शैतान जाग जाता है?
समाज का कोई इंसानी भेड़िया भविष्य में उनकी फूल से बच्ची के जिस्म को न नोचें यही सोचकर अब पिता दिल पर पत्थर रखकर कोख में ही बेटी को मारने को तैयार हो जाता है।
बेटी तो बेटी होती है उसे जात पात और धर्म देखकर संवेदनशील मत बनिये।
भगवान और खुदा से ये फरियाद करता हूँ कि अब किसी के पिता या अब्बा को ये दिन देखना न पड़े!
सबों की बेटी अब महफूज रहे!
दुआ करो कि दुआ कबूल हो!