एक तरफ पूरे देश मे चुनाव की विसात बिछी हुई है ,चौंक चौराहों पर सिर्फ राजनीतिक चर्चाएं छिड़ी हुई है इन सब के इतर एक बेबस लाचार और किसी रहनुमा के इंतिजार में खड़ा पूरा गांव का पहाड़िया जनजाति परिवार ,जिनके गांव में बीते शनिवार को 50 में 24 घर जलकर स्वाहा हो गया ।राजमहल लोकसभा क्षेत्र का बरहेट विधानसभा के अंतर्गत सुंदरपहाड़ी प्रखण्ड का टेसोबथान पंचायत में बसे तमलिगोड़ा गांव ।
जिसके नाम पर वर्षों से होती रही है सियासत ।
हमने उस पीड़ित परिवार का हाल जानने के लिए मुख्यालय से 30 किलोमीटर की दूरी पर जंगलों एवं पहाड़ों पर बसा गांव तमलिगोड़ा की ओर कुच कर दिया ।रास्ते अनजाने थे इसलिए हमने लोगों से पूछते हुए गांव की ओर बढ़ते चला गया ,जब हमारी गाड़ी अंतिम पड़ाव पर रुकी वहां से आगे कोई रास्ता ही नही था ,अचंभित सा मन यह सोच में लगा रहा कि आजादी के 70 सालों के बाद भी ऐसे गांव हैं जहां आजतक रास्ता नही बन सका है, रास्ता खत्म होने के बाद यह सोच ही रहा था कि बगल के दो तीन घरों से कुछ लोग निकले जिसमे एक दिले पहाड़िया नाम का नौजवान युवक भी था ,गांव का नाम था “चापर भीट्ठा (डाहूबेड़ा)” ।
दिले पहाड़िया ने हिंदी में मुझसे बात की बांकी लोग हंस रहे थे ,चूंकि 3,4 घरों के इस गांव में बहुत कम लोग थे और उनमें कुछ एक को ही हिंदी आती थी ।दिले से हमने तमलिगोड़ा जाने का रास्ता पूछा तो दिले पहाड़िया का जवाब था रास्ता यहीं तक है आगे पैदल जाना होगा हमने पूछा कितने समय लगेंगे उसका जवाब था 1 से 2 घण्टे लग सकते हैं ,मैं पहुंचा दूंगा लेकिन सौ दो सौ देने होंगे हमने उसकी बातों में हामी भरी फिर फिर हमारे साथ आये साथी अभिषेक (जो युवा पत्रकार भी है )दिले पहाड़िया के साथ वहां से पैदल सफर शुरू किया ।
आगे आगे दिले पहाड़िया पीछे हम दोनों ,तीनो युवा थे शुरुआत में एक मिशन पूरा करने जैसा था,लेकिन कुछ दूर पहाड़ों पर चढ़ने के बाद रास्ता 90 डिग्री का था,सफर काफी कठीन लग रहा था लेकिन मन मे वो 24 घरों के कठीन पलों में 24 परिवारों की फिक्र थी ।तो इस सफर को हमने आसान बनाया कैमरे के माध्यम से।दिले पहाड़िया ने हमलोगों से बातचीत शुरू की,पहाड़ों की कई जानकारियां देते देते सफर चलता रहा ,दिले बता रहा था कि ये जो महुआ का पेड़ है न इसी के फूल को चुनकर सूखा कर हमसब धंधा करते हैं ।
पहाड़ों पर चलते चलते रास्ते मे हमने एक और जनजाति पहाड़िया को देखा, चूंकि हमे आदिवासी भाषा की थोड़ी बहुत जानकारी थी तो हमने उनसे उसी भाषा मे हालचाल जाना फिर उन्होंने मुझसे वो अपनी भाषा मे “कहाँ जा रहे हो ?”पूछा तो हमने तमिलगोडा के बारे में बताया उन्होंने भी रास्ते को आसान बनाया,दो किलोमीटर के सफर के बाद हमारे कैमरे की नजर में बाल सुखाती एक महिला दिखती है और पत्थरों के बीच से पानी साफ करते एक बुजर्ग।
हमने उनसे जानना चाहा कि वो क्या कर रहे हैं तो हमने दिले पहाड़िया को माध्यम बनाया और पूछा जवाब था वो महिला स्नान कर रही है और वो बुजुर्ग पत्थरों के बीच से आ रहे झरने के पानी को साफ कर पीने लायक बना रहे थे ।
फिर वहां से चंद कदम आगे बढ़ा तो एक तालाब नजर आया तलाब के किनारे ही एक कुंआ था।
कुछ लोग तालाब में स्नान कर रहे थे और कुछ लोग कुंआ में पानी भरने जा रहे थे ।वहां से “तमलिगोड़ा” ढाई से तीन किलोमीटर था ,फिर आगे दूसरी पहाड़ी पर चढ़कर हम तमलिगोड़ा गांव के जैसे ही करीब पहुंचा तो देखा तो जंगल उजड़ रहे थे,कई जगह जंगलों में आग से जलकर पत्तियां राख हो चुकी थी ।
इन तस्वीरों के सहारे आखिरकार हम तीनों तमलिगोड़ा गांव पहुंचे,गांव के मुख्य द्वार पर ही एक सूखा पेड़ गिरा पड़ा था जिसमे से धुंआ निकल रहा था यानी शनिवार को लगी आग गुरुवार तक शांत नही हुई थी ।
गांव में घुसते ही चबूतरा नजर आया जहाँ देखते ही देखते पूरा गांव के लोग पहुंच गए और बिलखने लगे ।
तस्वीरें विचलित करने वाली थी ,चबूतरे पर खड़ा होकर जब हमने देखा तो आधा गांव जल चुका था ,घरों में रखे बर्तन से लेकर अनाज,कागजात से लेकर कपड़े तक खाक हो चुके थे ।
महिलाओं की आंखे इस बात की गवाही दे रही थी कि स्थितियां किस पीड़ा से गुजर रही है ।
यहां मुद्रा नही महुआ से चलता है काम ।
प्रायः सभी घरों में जाकर हमने देखा तो आंगन में महुआ सुखाया जा रहा था ,यह महुआ यहां का मुख्य रोजगार है ।लोग महाजन को महुआ देकर ही अन्न एवं अन्य समान लेते हैं।
हमें वहां पहुंचे महाजन भी मिले जो महुआ लेकर राशन दे रहे थे। हमने देखा आग की कहर से कंठ सुख रहे इस गांव में गुरुवार को एक आइसक्रीम वाला भी पहुंचा था जिसको महुआ देकर बच्चे आइसक्रीम ले रहे थे ,हमने वहां के कुछ लोगों के साथ आइसक्रीम खाकर अपनी कंठ गीला किया,चूंकि पूरा गांव आइसक्रीम से अपनी कंठ भिंगो रहे थे।
आग से प्रभावित इन परिवारों से हमने जानने का प्रयास किया कि आग कैसे लगी ?और अबतक क्या मदद मिली है ?तो गांव का एकमात्र बीए पास लड़का अभिषेक (जो कम्प्यूटर में भी डिप्लोमा किया है)ने बताया कि शनिवार को गांव के लगभग पुरुष हटिया गए हुए थे ।अचानक खबर मिली कि गांव में आग लग गई है ,लेकिन पहाड़ों पर इतनी दूरी तय कर जबतक हटिया से अपने घर वापस आते तबतक 24 घर जलकर स्वाहा हो चुका था ।आग पर काबू पाने के लिए जो पानी की जरूरत होती वो तीन किलोमीटर दूर उसी तालाब से आती इसलिए प्रयासों के बावजूद घरों को जलने से नही बचाया जा सका ।बाद में जानकारी मिली कि शनिवार को काफी हवा तेज थी और तमलिगोड़ा गांव के ही बाहर जंगलों में आग लगी हुई था जो तेज हवा के कारण गांव में प्रवेश कर गई जिसपर काबू नही पाया जा सका ।
जंगलों में आग अमूमन सुबह सुबह महुआ के चुनने के लिए लगाया जाता है ।यानी आग का कारण भी वही बना जिससे यहां के लोगों का पेट चलता है ।हालांकि अभिषेक ने हमे बताया कि पाकुड़ एवं हमारे यहां के कुछ लोकल जनप्रतिनिधि उनकी सुध लेने पहुंचे और गांव वाले को कुछ कपड़े अन्न एवं कुछ लोगों को त्रिपाल की व्यव्सथा दी ।
लेकिन अभिषेक ने हमे बताता है कि अबतक एक भी प्रशासन का पदाधिकारी नही पहुंचा है।अभिषेक पहाड़िया ने अपनी भी व्यथा बताई आंसू पोछते हुए उसने कहा कि मेरा मैट्रिक बी.ए एवं कम्प्यूटर डिप्लोमा का सारा सर्टिफिकेट जलकर खाक हो गया ,सरकार को कहिएगा मदद करे और उसके आँखो पर आंसू छलक पड़े ।हमने भरोषा दिलाया कि आपकी बात सरकार के कानों तक मैं पहुंचाऊंगा ।
आपसी भाईचारे की भी आदिम जनजाति में दिखती है मिशाल
इसी बीच गांव के बीचोबीच सभी ग्रामीण पहाड़िया की भीड़ जुटनी शुरू हो जाती है ,मामला बदन के कपड़े का था जो किसी लोकल जनप्रतिनिधि शिवचरन मालतो देकर गए थे।दो बोरी कपड़े को खोलकर सभी एक दूसरे को पहनाकर अपने पसन्द के अनुरूप आपस मे बांट रहे थे ।
महिलाएं भी अपने कपड़े उन्ही बोरियों के कपड़ों से ढूंढ ढूंढ कर पहन रही थीं , इतने दुःख के बावजूद आपसी तालमेल का होना भाईचारे को दर्शा रहा था।गांव में एक लड़की के हाथ मे मोबाइल टैबलेट दिखा हमने उनसे जाकर हिंदी में बात की उसने भी हिंदी में ही जवाब दिया हालांकि वहां मौजूद बांकी महिलाएं हिंदी नही समझ रही थी।वो लड़की गांव की बहू थी ,उस भयानक आग के कहर के दिन उसकी तबियत खराब थी घर मे सोई हुई थी ,बताती है कि कुछ भी बचा नही सके हवा के कारण भी आग ज्यादा बढ़ गया और पानी तीन से पांच किलोमीटर के बीच से लाना पड़ता है उसने बताया कि वो भी पढ़ी लिखी है बोआरिजोर घर है लेकिन शादी के बाद अब ससुराल में रह यहीं रही है ।
गांव घुमाते हुए हमें अभिषेक पहाड़िया ने बताया कि यहां कोई सुविधा नही मिल पाया है ,न पानी की समुचित व्यवस्था है न ही शौचालय जैसी कोई सुविधा ।
यहां उज्ज्वला नही जंगल की लकड़ी से बनता है खाना ।
तमलिगोड़ा में उज्ज्वला योजना वाला गैस चुल्हा नही है यहां जंगलों को काटकर जलावन बनाया जाता है हालांकि पहाड़िया जनजाति परिवार मरे हुए पेड़ों को काटकर जलावन तैयार करता है और उसी से उसका चूल्हा जलाता है।
कई लकड़ी व्यपारी भी इस जंगल को बेचने में लगे हुए हैं जो काटकर इन लकड़ियों को बाजार की तरफ लाकर बेचते हैं ।जनलों में मुख्य पेड़ महुआ का है,जो इन आदिम जनजाति परिवार के आय का मुख्य आधार है ।
गांव में ही एक जगह से हमे A..B..C..D की आवज आई पास जाकर देखा तो टूटे मकानों में एस्बेस्टर्स के सहारे एक प्राथमिक विद्यालय था ,जिसमे तकरीबन 20 बच्चे पढ़ रहे थे ,अंदर जाकर देखने पर दो शिक्षक एक रूम में पढा रहे थे ।
ब्लैक बोर्ड में abcd लिखा हुआ था और एक बच्चा उसे बांस की छड़ी के सहारे दर्शाते हुए बच्चों से ABCD को रटवाते हुए याद करवा रहा था ।शिक्षकों ने हमे बताया कि वो पारा शिक्षक हैं ,सरकारी शिक्षक वहां एक भी नही है।
स्कूल के बरामदे पर महाजन अपनी दुकान सजा रखा था जहां महिलाएं महुआ लेकर आ रही थी और अपने घर का राशन खरीद रही थी । चलते चलते अभिषेक पहाड़िया बता रहा था कि ये शिक्षक भी आग लगने के बाद आये हैं ,नही तो पहले किसी किसी दिन दिखते हैं ।कोई पढ़ाने वाला नही आता है ।स्कूल जर्जर हालत से बत्तर स्थिति में पहुंच चुका है ।
हाशिये पर आज भी हैं आदिम जनजातियां ।
झारखंड में आदिम जनजातियों की दयनीय अवस्था जग जाहिर सी बात है,राज्य सरकार की ओर से भी उनकी दशा और अवस्था सुधारने के लिए कई प्रयास शुरू किये गये हैं, लेकिन उनकी अवस्था आज भी दयनीय बनी हुई है,आदिम जनजातियों के निवास स्थल आज भी बिजली,पानी,सड़क जैसे सुविधाओं से वंचित हैं,गोड्डा जिले के सुंदरपहाड़ी प्रखण्ड का टेसोबथान पंचायत का तमलिगोड़ा गांव के इस जंगली क्षेत्र में रहने वाले आदिम जनजाति परिवार को तीन से पांच किलोमीटर की दूरी से पेयजल लाना पड़ता है,वो भी या तो पत्थरों के बीच बह रहे झरने से या उस क्षेत्र का एक मात्र कुआं से ।वहां पहाड़िया परिवारों को पेयजल की घोर किल़लत का सामना करना पड़ता है,गोड्डा जिला के सुदूर सुंदरपहाड़ी प्रखंड के विभिन्न गांवों में आदिम जनजाति परिवार गुजर बसर करते हैं सरकार की कई योजना आदिम जनजातियों पर काम कर रही है ।बावजूद राजमहल लोकसभा क्षेत्र का बरहेट विधानसभा अंतर्गत आने वाला तमलिगोड़ा गांव में बसे इस आदिम जनजातियों सरकारी योजना का लाभ नही मिल सका है ।इस विधान सभा के वर्तमान विधायक हेमंत सोरेन हैं जो पूर्व मुख्यमंत्री झारखण्ड भी रह चुके हैं बावजूद इस क्षेत्र का आदिम जनजाति आज भी वंचित है ।हालांकि आदिम जनजातियों के नाम सियासी रोटियां खूब सेंकी जाती रही है ।इन जनजातियों के विकास और रोजगार के लिए सकरार के द्वारा विशेष प्रावधान भी किये गये हैं।
केन्द्र सरकार के द्वारा आदिम जनजातियों के विकास के लिए किये जाने वाले प्रावधान की बजट राशि भी आती है, आदिम जनजातियों की अवस्था का आकलन करने के बाद अत्यधिक पिछड़ापन तथा कमजोर होने के कारण उनके संरक्षण तथा विकास एवं उनकी आबादी में आ रही कमी को रोकने के मकसद से विशेष योजनाओं का का संचालन किया जा रहा ।इन योजनाओं में स्वास्थ्य शिक्षा ,आवास ,भूमि,विकास,कृषि वृद्धि,मवेशी विकास आदि कार्य किये जाते हैं लेकिन ग्राउंड पर इन योजनाओं का हाल नदारत दिखता है ।राज्य सरकार की ओर से भी आदिम जनजाति के संरक्षण एवं विकास के लिए विशेष प्रावधान हैं ,सरकारी नौकरी में भी कोटा का प्रावधान किया गया है ,लेकिन शिक्षा का स्तर निम्न होने के कारण इन समूह के युवाओं को विशेष लाभ नही मिल पा रहा है ।
हमने इस विचलित करने वाली घटना के बारे में सुंदरपहाड़ी बी.डी.ओ सौरभ सुमन से भी बात की उन्होंने कहा कि राहत सामग्री की व्यवस्था की गई है कुछ सामग्री कम्पनी के सीएसआर फंड से भी मिली है लेकिन रास्ता दुर्गम होने के कारण राहत सामग्री नही पहुँच पा रही है जल्द ही सरकार की मदद उस गांव तक पहुंचाया जाएगा ।
क्या कहती हैं गोड्डा की उपायुक्त
उपायुक्त किरण कुमारी पासी से भी हमने इस घटना के संदर्भ में जानना चाहा तो उन्होंने हमें बताई की हमे जानकारी मिली है ,राहत के लिए व्यवस्था की गई है ,उपायुक्त ने हमारे माध्यम से पीड़ित नामो की सूची लेते हुए ,इस गांव को प्राथमिकता में रखकर जल्द से जल्द आपदा प्रबंधन कोषांग से मदद करने की बात कही है ।
बरहाल संथाल परगना सहित गोड्डा में बसे बड़ी संख्या में इस आदिम जनजाति परिवार के नाम पर वर्षों से राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले ,इनके नामो के सहारे वोट बैंकों की राजनीति करने वाले नेताओं को आज का दिन सोचने का है कि क्या सचमुच हम आजाद भारत के 72वें वर्षों में हैं ?
इस आदिम जनजाति पहाड़िया परिवार के दर्द को समेट कर हम पुनः दिले पहाड़िया के साथ वापस आये दिले ने अपने गांव में बिठाकर पानी पिलाया और फिर यह हमने इसे लिखकर कहानी को आपके लिए रख दी ।यह सोचकर कि आज भी शहर से 30 किलोमीटर दूर 90 डिग्री की ऊंचाइयों पर जंगलों और पहाड़ों के बीच बसे तमलिगोड़ा के अभिषेक पहाड़िया और इसके जैसे कई परिवार अपने घर का सबकुछ खोकर राखों के ढेर पर खड़ा होकर किसी रहनुमा की राह ताक रहे हैं ।
राघव मिश्रा गोड्डा