अभिजीत तन्मय/हाँ शायद आज से चार साल पहले मैंने एक औरत को देखा था जिसके गोद मे एक बच्चा और एक बच्चा उँगली पकड़े खड़ा था।
पुराना अस्पताल पुरानी व्यवस्था और मैं नया पत्रकार!
जिज्ञासा वश पूछ लिया तो पता चला कि इस बच्चे को हर माह खून चढ़ाया जाता है और जिस माह खून चढ़ाने में तनिक भी देरी होती है तो बच्चे की स्थिति खराब हो जाती है। पहली बार मैं खुद उस बीमारी का नाम सुना था जिसका नाम था #थैलेसेमिया!
इस बीमारी में बच्चे के शरीर मे खून नही बनता है। इसका इलाज बॉन मेरो ट्रांसप्लांट से हो सकता है।
फिर लगा कि इसके लिए कुछ करना चाहिए! उस समय मैं जैन न्यूज़ के लिए काम करता था। मैं अपने डेस्क पर बात किया और उन्हें ये बात बताई! डेस्क इंचार्ज ने तुरंत खबर बनाने को कहा।
खबर का शीर्षक था…. #दो जिंदगी बचाने में मर रही है छह जिंदगियां!
घर चरकाकोल जाकर खबर बनाई गई। वही उसके पिता जयकांत मांझी से मुलाकात हुई थी। उससे जानकारी मिली कि वो दिल्ली में मजदूरी करता था। तीन बच्चियों के बाद दो बेटा हुआ लेकिन दोनों को ये खतरनाक बीमारी हो गयी।
जमीन कुछ बिक गयी थी कुछ गिरवी रखी हुई थी। उसके बाद हर माह दोनों बच्चों को खून चढ़ाने की जिम्मेदारी थी। ये बात उस दिन एहसास हुआ कि भगवान जिसे दुख देते है उसे हिम्मत भी फौलादी देते है। खून के लिए ये परिवार हर माह कभी भागलपुर कभी देवघर,कभी दुमका कभी आसनसोल तक जाता था।
फिर इस परिवार की समस्या सिविल सर्जन तक आई। कुछ दवाब के कारण विभाग भी कुछ पहल करने लगा। उनके प्रयास से दुमका और देवघर में खून मिल जाने लगा।
ये खबर चैनल में आधे घंटे के पैकेज में चली तब पता चला कि थैलेसेमिया डे शायद 8 या 10 मई को मनाया जाता है। संसार मे कितने इस बीमारी से पीड़ित है ये जानकारी भी उसी खबर के द्वारा मिली। एक बार ये पूरा परिवार देवघर ब्लड बैंक पहुँचा लेकिन वहाँ खून नही था। मैंने अपने एक मित्र सुनील कुमार,पत्रकार को फोन किया और ब्लड बैंक से खून दिलवाने की गुजारिश की। वो अस्पताल पहुँचे। पीड़ित परिवार से मिले और खून नही मिल पाने की स्थिति में अपना खून दे दिया।
मैंने इस घटना को पुनः अपने चैनल हेड को बताया। वो इस घटना से इतने प्रभावित हुए की उन्होंने देवघर के रिपोर्टर से मेरे मित्र का बाइट लेकर खबर बनाया और इस बार भी गोड्डा और देवघर ब्लड बैंक की घटना के साथ पुनः आधे घंटे की स्पेशल खबर बनी।
बाद में अन्य चैनल एवम अखबारों के द्वारा इसे प्रमुखता से दिखाया गया। इस पीड़ित परिवार की समस्या सामाजिक कार्यकर्ता प्रदीप कुमार विद्यार्थी ने भी उठाया और मुख्यमंत्री को भी अवगत कराया। स्थानीय विधायक अमित मंडल के द्वारा भी मदद करवाया गया था। अब ये सबके जेहन में आ चुका था कि जयकांत मांझी और उनकी पत्नी अपने बेटों की जिंदगी के लिए कुछ भी कर सकते है। मुख्यमंत्री कोष से मिली राशि से ये परिवार वेल्लोर गया जहां बच्चे का इलाज शुरू हुआ लेकिन खर्च लाखों में होना था जो राज्य सरकार के बस के बाहर की बात थी।
तब तक इस परिवार के दुख-दर्द की कहानी मीडिया के द्वारा दूर दूर तक पहुँचने लगी थी। सांसद निशिकांत दुबे की पहल पर प्रधानमंत्री राहत कोष के जरिये इलाज के लिए पूरी राशि वेल्लोर हॉस्पिटल को दे दी गयी थी लेकिन इन सबों के बीच भी कई बार जाँच के लिए पूरे परिवार को वेल्लोर आना-जाना पड़ा जिसमे भी बहुत रुपये खर्च हुए।
हर बार गोड्डा के कोई ना कोई समाजसेवी या संगठन आगे आकर इस परिवार की मदद करता था। #सरोकार गोड्डा का जो एक वाट्सएप ग्रुप है उसके सदस्यों ने भी मदद किया। अडानी फाउंडेशन के द्वारा भी राशि दी गयी। दुमका जिला के पत्रकारों ने भी चंदा उठाकर इस परिवार की मदद की।
पिछले साल पूरी उम्मीद के साथ जयकांत मांझी अपने पूरे परिवार के साथ वेल्लोर गया था जहां उसे पूरी उम्मीद थी कि उसके बड़े बेटे की सारी समस्या समाप्त हो जाएगी। लगभग 20 से 22 लाख खर्च सरकार से लेकर आम आदमी तक मदद के द्वारा पूरा किया गया लेकिन नियति ने धोका दे दिया।
सबकुछ खोकर बेटे की जिंदगी लेने गया पिता दो दिन पहले अंतिम उम्मीद भी खो दिया जब डॉक्टरों ने उससे कहा कि अब तुम्हारा बेटा इस दुनिया मे नहीं रहा!
कैसा लगा होगा उसे उस पल जब उसका पूरा परिवार उस घड़ी को महसूस किया होगा!
उतनी मेहनत के बाद भी नतीजा शून्य!
क्या अब फिर वो हिम्मत कर सकेगा उसी मजबूती के साथ अपने दूसरे बेटे के इलाज के लिए!
क्या उसे ये डर नही सताएगा कि कहीं इसके साथ भी वही स्थिति न हो जाए।
शून्य से उठकर सबकुछ पाकर फिर शून्य पर पहुँच गया वो परिवार लेकिन मुझे यकीन है कि जयकांत मांझी और उसकी पत्नी इतनी जल्दी हार मानने वाले नही है। वो फिर उठेंगे,चलेंगे और दौड़ेंगे! देखते है कि भगवान आखिर कब तक उनकी इम्तिहान लेते है।
जयकांत “मांझी” समुद्र में आये तूफान से अपनी डगमगाती नैया को किनारे लेकर जरूर आएगा क्योंकि उसकी इस जंग में उसकी पत्नी साथ है।
भगवान अब और परीक्षा मत लेना!
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