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किसानों की उपजाऊ जमीन अडाणी ग्रुप को देने में झारखंड सरकार ने किसानों की क्यों नहीं सुनी?

चित्रांगदा चौधरी:गोड्डा/बांग्लादेश को बिजली आपूर्ति करने वाले बिजली प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहित करने के मामले में 31

अगस्त, 2018 को, झारखंड पुलिस द्वारा समर्थित अडाणी समूह के अधिकारियों ने इन आदिवासी संथाल किसानों के धान की फसलों को नष्ट कर दिया और पेड़ों को उखाड़ फेंका।
संथाल आदिवासी किसान 31 अगस्त, 2018 को अडानी कर्मियों के पैरों पर गिर गए और वे उनकी जमीन न लेने की भीख मांग रहे थे। क्रेडिट: अभिजीत तनमय / कशिश न्यूज

गोड्डा, झारखंड: पुलिसकर्मियों के वाहनों के एक काफिले के साथ, “अडाणी के लोग ” शुक्रवार, 31 अगस्त, 2018 को अर्थमूविंग उपकरण के साथ पहुंचे थे, जैसा कि झारखंड के सुदूर पूर्वी कोने के गांव माली में आदिवासी और दलित ग्रामीणों ने बातचीत में कहा। भारत के सबसे बड़े मूल जनजातियों में से एक, संथाल समुदाय के 40 वर्षीय किसान सीता मुर्मू मिट्टी और ईंट के घरों के साथ लगे खेतों को दिखाती हैं और इसे अधिग्रहित कर लेने के जबरिया प्रयासों के बारे में बताते हुए कहती हैं, “हममें से प्रत्येक के लिए 8 से 10 पुलिस थी।” ये जमीन उपजाऊ है, बहुफसली है और इन ग्रामीणों के लिए आजीविका का एकमात्र स्रोत है। ग्रामीण अंदर से हिल गए थे, जब अर्थमूवर के साथ आए लोगों ने मूल्यवान ताड़ के पेड़ों को उखाड़ना और धान के खेतों को रौंदना शुरु कर दिया। खेतों में धान कुछ दिन पहले ही लगाए गए थे।

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संताली किसान अनिल हेम्ब्रम बताते हैं, “हमने अडाणी के लोगों से रूक जाने का आग्रह किया। लेकिन उन्होंने कहा कि हमारी जमीन अब उनकी है। सरकार ने उन्हें हमारी जमीन दे दी है।”

ग्रामीणों ने कहा कि उन्होंने गोड्डा के डिप्टी कमिश्नर (डीसी) और पुलिस अधीक्षक (एसपी) से मदद मांगने के लिए तत्काल फोन कॉल किए । उन्होंने याद करते हुए बताया, “एसपी ने हमें बताया कि स्थानीय थाना (पुलिस स्टेशन) पर जाएं और शिकायत दर्ज कराएं। हमने उनसे कहा, हम थाने में शिकायत कैसे दर्ज करा सकते हैं, जब वहां की पुलिस अडाणी के साथ यहां है। डीसी ने भी हमारे आग्रह को नजरअंदाज कर दिया। डीसी ने कहा, ‘आपका पैसा ( जमीन के लिए मुआवजा ) सरकारी कार्यालय में पड़ा है, जाओ, इसे ले लो।”

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इस बीच अडाणी के लोग, खेत और तालाब में बाड़ लगाने के लिए कॉन्सर्टिना तार लगा रहे थे। किसानों ने बताया कि संताली समाज में मरे हुओं को अपनी ही भूमि में दफन करने की प्रथा है । अर्थमूवर ने कबीले के उन जमीनों को भी खोद दिया, जहां संतालों के परिजन दफन थे।

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इस विनाश लीला को देखकर कई महिला किसान अडाणी के लोगों के चरणों में गिर गई, और उनकी जमीन छोड़ देने के लिए उनसे अनुरोध किया। वे रो रही थीं, कह रही थी कि जमीन बिना वे जीवित नहीं रह सकती थीं।

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कई लोगों ने उन दृश्यों को अपने सेलफोन पर फिल्माया, और कहानी गोड्डा स्थित हिंदी न्यूज आउटलेट द्वारा चलाई गई, लेकिन भारत के बड़े मीडिया संस्थानों की ओर से इस पर कोई चर्चा नहीं हुई।

Screenshot_20181205-191014_Video Playerमहिलाओं के विरोध से नाराज, अडाणी टीम और पुलिस ने उस दिन अंततः भूमि अधिग्रहण के प्रयास को बंद कर दिया।

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इंडियास्पेन्ड ने 20 नवंबर, 2018 की सुबह माली और व्यापक भूमि अधिग्रहण परियोजना के बारे में अडाणी समूह और गोड्डा डीसी किरण पासी को प्रश्नावली भेजी। दोनों में से किसी ने भी कोई जवाब नहीं दिया है। यदि वे जबाव देते हैं, तो हम इस आलेख को अपडेट करेंगे। अडाणी समूह के खिलाफ ग्रामीणों की लड़ाई वर्ष 2016 में शुरू हुई, जब राज्य की राजधानी रांची से 380 किमी पूरब गोड्डा से सटे माली और इसके आसपास के नौ अन्य गांवों में विवाद शुरु हुआ था। यही वह समय था, जब अडाणी समूह की सहायक कंपनी अडाणी पावर (झारखंड) लिमिटेड ने झारखंड में बीजेपी सरकार से कहा कि वह इन गांवों में 2,000 एकड़ भूमि (निजी खेत और आम जमीन) पर कोयले से चलने वाले प्लांट का निर्माण करना चाहता है, जैसा कि इंडियास्पेंड द्वारा आधिकारिक दस्तावेजों की समीक्षा के बाद पता चलता है।

 

अडाणी समूह का नेतृत्व भारत के सबसे अमीर और सबसे शक्तिशाली टाइकूनों में से एक, गौतम अडाणी कर रहे है। गोड्डा में प्रस्तावित 1,600 मेगावाट (मेगावाट) प्लांट के लिए ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया से कोयला आयात होगा। संयत्र के पूरा होने पर ( पूरा होने का वर्ष 2022 है ) बांग्लादेश को हाई वोल्टेज तारों के माध्यम से बिजली बेचा जाएगा। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश की यात्रा के बाद प्लांट के लिए प्रस्ताव अगस्त 2015 में आया था। मोदी के साथ जाने वाले उद्योगपतियों में से एक अडाणी थे और एजेंडे में पॉवर ट्रांसमिशन शामिल था। लेकिन माली, मोतिया, नयाबाग और गंगटा के गांवों के किसानों का अनुभव है कि प्लांट के लिए भूमि का जबरन अधिग्रहण हो रहा है – भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम (एलएआरआर अधिनियम) में उचित मुआवजे और पारदर्शिता के अधिकार है, जिससे किसानों को निर्वासित किया जा रहा है। संसद ने सर्वसम्मति से सितंबर 2013 में एलएआरआर अधिनियम पारित किया, जिसमें एक स्वीकृति थी कि 1894 भूमि अधिग्रहण अधिनियम, जो कि 123 वर्षों के लिए लागू है, को तोड़ने की जरूरत है। बुनियादी ढांचे और विकास के लिए भूमि और निजी संपत्ति का जबरन राज्य अधिग्रहण ब्रिटिश इंडिया की विरासत है, जिसे 1894 के कानून द्वारा वैध बनाया गया था। स्वतंत्र भारत में, इस औपनिवेशिक युग के कानून को, विशेष रूप से उद्योग के लिए निजी ग्रामीण भूमि लेने और इसके लिए दुर्व्यवहार करने के लिए आलोचना की गई थी। कलिंगनगर से नंदीग्राम तक उद्योग के लिए निजी ग्रामीण भूमि लेने के मामले पर कई तरह की खूनी लड़ाई होती रही। इसमें आदिवासियों को काफी कुछ झेलना पड़ा है।यहां यह बता देना जरूरी है कि आदिवासी भारत के सबसे वंचित समुदायों में से एक हैं और वे भारत की आबादी का 8 फीसदी हैं, लेकिन बांधों, खानों और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए बेदखल किए गए लोगों में उनकी तादाद लगभग 40 फीसदी है। एलएआरआर अधिनियन उनके लिए अतिरिक्त सुरक्षा उपाय प्रदान करता है, जैसे कि उनके भूमि के अधिग्रहण के लिए सहमति को सूचित करना जरूरी है, जैसा कि मुहम्मद खान ने बताया । खान एक वकील हैं और कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता हैं जिन्होंने अधिनियम पर मसौदा तैयार करने में मदद की है, और इस मुद्दे पर एक पुस्तक ‘लेजिसलेटिंग फॉर जस्टिस’ का सह-लेखन भी किया है।

वे आगे बताते हैं, “यह अधिनियम अनुसूचित जातियों (दलितों) और अनुसूचित जनजातियों (आदिवासियों) के लिए अतिरिक्त क्षतिपूर्ति उपाय जैसे भूमि के लिए भूमि का हक भी प्रदान करता है। यह एक महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच है, क्योंकि यह सर्वमान्य सत्य है कि इस तरह के समुदायों की पहचान और आजीविका हर हाल में जमीन पर आधारित है, इसलिए जमीन लेते हो तो जमीन दो भी। ”

लेकिन हमने पाया कि झारखंड सरकार के एलएआरआर अधिनियम का उपयोग यह दर्शाता है कि एक प्रगतिशील कानून कैसे औपनिवेशिक पूर्ववर्ती की नकल कर सकता है। इस मामले में झारखंड और शेष भारत के लिए महत्वपूर्ण सबक हैं, क्योंकि यहां पहली बार राज्य सरकार ने निजी उद्योग के लिए एलएआरआर कानून विकसित किया है।

माली और आसपास के गांवों में, इंडियास्पेंड ने पाया कि एलएआरआर अधिनियम, जिसका उदेश्य “मानवीय तरीके से, पारदर्शिता बरतते हुए, और सहमति की सूचना देते हुए “ भूमि अधिग्रहण करना है, पर समझौता किया गया है।

सरकारी संस्थानों के लिए, लंबे समय तक सार्वजनिक उत्तरदायित्व के साथ प्रतिष्ठित डोमेन को तैनात करने के आदी होने के कारण, एलएआरआर अधिनियम के तहत यहां भूमि अधिग्रहण करते हुए-सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन, सार्वजनिक उद्देश्य, औचित्य, अधिग्रहण से पहले प्रभावित परिवारों की सहमति, आदिवासियों और दलितों के लिए भूमि-के लिए-भूमि मुआवजा, और निर्णय लेने में पारदर्शिता और भागीदारी को या तो कम किया गया है, या नजरअंदाज किया गया है ।

19 नवंबर, 2018 को हमारे साथ एक संक्षिप्त बातचीत में, गोड्डा डीसी पासी ने अधिग्रहण का बचाव किया।

इस साल चार गांवों में लगभग 500 एकड़ जमीन के अधिग्रहण का जिक्र करते हुए, उन्होंने कहा, “किसान अपनी जमीन पर पावर प्लांट चाहते हैं।” विरोध प्रदर्शन के बारे में पूछे जाने पर, विशेष रूप से आदिवासी और दलित किसानों द्वारा अधिग्रहण का विरोध करने की बात पर, उन्होंने हमें एक प्रश्नावली भेजने के लिए कहा। इंडियास्पेन्ड ने 20 नवंबर, 2018 को ऐसा किया, लेकिन दो दिनों में दो बार याद दिलाने के बावजूद पासी ने जवाब नहीं दिया।

‘मानवीय, पारदर्शी, सहभागी’ कानून का उपहास

सरकार द्वारा समर्थित, अडाणी के लोग उन बहु-फसल खेत की भूमि को नष्ट कर रहे हैं, जो अपने मालिकों, बटाईदार और कृषि श्रमिकों को साल भर के काम और आजीविका प्रदान करता है। (दाएं)

31 अगस्त, 2018 को, माली के संथाली किसान तालामाई मुर्मू, अडाणी के लोगों के चरणों में गिर गए थे और जमीन न लेने की भीख मांगी। गंगटा के ग्रामीण (जिनकी भूमि अब कंपनी के कब्जे में है) रमेश बेसरा कहते हैं, “उन्होंने मेरी जमीन को डकैतों की तरह ले लिया है।” (दाएं)

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जब 31 अगस्त, 2018 के हिंसक अधिग्रहण प्रयास के बाद इंडियास्पेन्ड माली के किसानों के बीच गया, उनकी भूमि तब तक नहीं ली गई थी। लेकिन गांव वाले अडाणी कर्मियों और पुलिस के वापस आने को लेकर परेशान थे। वे लोग ‘जोरदार विरोध’ की तैयारी कर रहे थे।

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मैनेजर हेम्ब्रम ने अपने उपजाऊ खेतों की ओर ईशारा करते हुए कहा, ” जमीन हमारे लिए सब कुछ है, जिसमें चावल, गेहूं, मक्का, दालें और सब्जियां उगIते हैं। हमारी आजीविका, हमारा जीवन, सरकार की योजनाओं से मिलने वाले लाभ के लिए हमारी पहचान का आधार जमीन ही है।” सीता मुर्मू और अन्य महिला किसान भी इस बात से सहमत थीं, “हम अपनी भूमि पर मेहनत करते हैं, और खुद की जिंदगी के लिए साधन जुटाते हैं। हम इसे किसी तरह भी नहीं दे सकते हैं। ”

ग्रामीण गंभीर आर्थिक नुकसान और खाद्य असुरक्षा को देख रहे थे, क्योंकि अडाणी कर्मियों ने उनकी धान की फसल को नष्ट कर दिया था।

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हेम्ब्रम ने कहा, “हमारी फसल नष्ट हो गई। हमें आने वाले समय में अपने पशुओं के लिए चारा को लेकर समस्या होगी।” गांव वालों ने कहा कि मुर्मू ने 31 अगस्त, 2018 को अपनी फसल को नष्ट करने वाले अडाणी कर्मियों के खिलाफ अत्याचार अधिनियम के तहत जिला अदालत में मामला दर्ज किया है।

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उन्हें नवंबर तक गेहूं की अगली फसल बोने के लिए इंतजार करना होगा। 23 नवंबर 2018 को, किसानों ने हमें बताया कि यह फसल भी सवाल में थी: आठ दिन पहले, अडाणी कर्मियों ने गोड्डा पुलिस को शिकायत भेजी और उनसे हेम्ब्रम और अन्य लोगों को भूमि पर एक नई फसल उगाने से रोकने के लिए कहा, कहा कि सरकार ने उनके लिए अधिग्रहण किया था।
गांव वाले जब इंडियास्पेंड के साथ बात कर रहे थे, उनमें से एक वृद्ध बिमल यादव ने रोना शुरू कर दिया। रोते हुए कहा, “अडाणी बाबू, हमारी जमीन छोड़ दें। हमें तो वे पैसे मिल जाएंगे, जो आप हमें जमीन के बदले दे रहे हैं, लेकिन हमारी भविष्य की पीढ़ियां कैसे रहेंगी? हम आपसे विनती करते हैं, हमारी जमीन न लें।”

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अगले दिन, उखड़े पेड़ों और जमीन पर क्षतिग्रस्त फसलों के बीच घूमते हुए, गांव वालों में से एक लकमाई मुर्मू भी टूट गए। उन्होंने कहा, “जब हम अपनी जमीन देने के लिए सहमत नहीं हुए हैं, तो वे जबरन इसे कैसे ले सकते हैं?” वे हमें पहले ही क्यों नहीं मार देते?”

माली गांव के इस टुकड़े में ग्रामीणों को उम्मीद है कि सरकार उनके विरोध पर शायद ध्यान दे सकती है। लेकिन गंगटा और पड़ोसी गांवों में सूर्यनारायण हेम्ब्रम और रमेश बेसरा जैसे आदिवासी किसानों की पैतृक भूमि हाल के महीनों में प्लांट के लिए अधिकृत की जा चुकी है।

नयाबाद के रमेश बेसरा ने कहा, “उन्होंने इसे डकैतों की तरह ले लिया है। हममें से कोई कुछ भी नहीं कर पाया।” हेम्ब्रम ने कहा कि जुलाई, 2018 के दूसरे सप्ताह में, उन्होंने अपने खेतों को जिस दिन बोया था, उसके एक दिन बाद, अडाणी के लोग पुलिस के साथ गंगटा पहुंचे और उनकी जमीन के हिस्से को घेर दिया। हेम्ब्रम का खेत उन लोगों के खेतों में से था, जो नष्ट हो गए थे। उन्होंने कहा कि अगले दिन उन्होंने अपनी जमीन पर विरोध करने की कोशिश की, लेकिन अडाणीकर्मी और अधिकारी पहुंचे और उन्हें बेदखल करने की कोशिश की।

हेम्ब्रम ने बताया, ” उन्होंने हमसे पूछा, किसके आदेश पर तुम यहां आए हो। हमने उनसे कहा, यह हमारी पूर्वज भूमि है। हम खेती पर जीवित हैं। क्या हमें सरकार से अपनी जमीन पर आने के लिए आदेश लेना होगा? ‘”

गोड्डा स्थित संताली संवाददाता मेरीनिशा हांसदा, जो उस दिन किसानों के साथ थीं, हेम्ब्रम की कहानी की रिपोर्ट कर रहीं थीं। उन्होंने कहा कि अडाणीके अधिकारी मौके पर पहुंचे और उन्हें वीडियो फुटेज डिलीट करने के लिए कहा। धमकी दी। वे विवादित भूमि पर हुए हंगामे के वीडियो को डिलीट करने के लिए कह रहे थे।

हांसदा ने कहा, “मैंने उनसे कहा कि मैं रिपोर्टिंग कर रही हूं। यह मेरा काम है और मैं फुटेज नहीं हटाऊंगी।” अडाणीकर्मियों ने पुलिस बुला ली। हांसदा वहां से हट गई और एक गांव वाले के यहां रात में रूकी।

कुछ दिनों में अदालत का एक नोटिस हेम्ब्रम के घर आया। नोटिस में बताया गया कि पुलिस में अडाणी कर्मचारियों द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी, जिसमें दंगा, और सार्वजनिक शांति को भंग करने के इल्जाम में पांच आदिवासी ग्रामीणों को चार्ज किया था। हेम्ब्रम वर्तमान में जमानत पर बाहर हैं। अडाणी प्रवक्ता ने किसानों के खिलाफ कंपनी द्वारा दायर मामलों पर इंडियास्पेंड के सवालों का जवाब नहीं दिया।

पोड़ेयाहाट के विधायक प्रदीप यादव, जो परियोजना पर 2016 से प्रश्न उठा रहे हैं, ने भी इसी तरह के आरोपों पर 2017 में पांच महीने जेल में बिताए और वर्तमान में जमानत पर हैं। यादव ने आरोप लगाया, “मैं सरकार और अडाणी की मिली-भगत पर सवाल उठा रहा था तो पुलिस ने मुझ पर कई मामले लगा दिए। जेल में मुझे भेजकर ग्रामीणों के लिए डर में जीने, विरोध न करने और सवाल न उठाने का संदेश दिया गया है।”
सूर्यनारायण हेम्ब्रम और अन्य किसानों को अपनी भूमि के अधिग्रहण का विरोध करने के लिए आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ रहा है।

हाल ही में, माली-गंगटा में ग्रामीणों का एक बड़ा समूह अडाणी के आतंक के बारे में बात करने के लिए इकट्ठा हुआ। एक संताली किसान मोहन मुर्मू ने कहा, “कंपनी के आने के बाद हमारी शांति खत्म हो गई है। हमारे गोचर जमीन भी कंपनी ने ले लिया है।” अन्य लोगों का कहना था कि जिसकी जमीन चली गई उनका साथ देने के लिए यदि वे जाते हैं तो कंपनी के लोग कहते हैं तुम साथ में जाते हो,तुम्हारी भी जमीन ले लेंगे।

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इस आधार पर कि वे कभी भी अपनी जमीन अडाणी को देने के लिए सहमत नहीं थे, बेसरा और हेम्ब्रम दोनों ने मौद्रिक मुआवजे को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। आस-पास के अन्य गांवों के बालेश कुमार पंडित, चिंतामणि साह, रामजीवन पासवान और जयनारायण साह का भी यही सच है।

एक अवकाश प्राप्त स्कूल शिक्षक, चिंतामणि साह ने भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में कानून के उल्लंघन की सूची बनाते हुए दिसंबर, 2016 से कई शिकायतें दायर की हैं। चिंतामणि साह कहते हैं, “जब मैं पहले दिन से अडाणी को अपनी जमीन देने का विरोध कर रहा हूं, और मैं ऐसा करना जारी रखता हूं, तो मैं उस पैसे को किस नैतिक आधार पर ले सकता हूं?” कई ग्रामीणों ने 2016 से 2018 के बीच किए गए पत्र, अपील और ग्राम सभा प्रस्तावों को दिखाया, जिसमें भूमि अधिग्रहण का विरोध किया गया था। इन्हें कई अधिकारियों को संबोधित किया गया था- जिले के अधिकारियों से लेकर राज्य के राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू तक। अनुसूचित जनजातियों के संबंध में, विशेष रूप से, भूमि से अलगाव को रोकने में, संविधान के तहत राज्यपाल की एक विशेष भूमिका है। गवर्नर मुर्मू के कार्यालय ने इन शिकायतों पर उनके कार्यालय द्वारा की गई कार्रवाई के बारे में इंडियास्पेंड प्रश्नावली का जवाब नहीं दिया। हमें चार लोगों से सुनने को मिला कि, “किसी से कोई सुनवाई नहीं है।”

सार्वजनिक उद्देश्य: अडाणी के लिए खेती की जमीन, बांग्लादेश के लिए बिजली

एलएआरआर अधिनियम पर भारत के ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने तर्क दिया था कि राज्य को कानून द्वारा दिए गए प्रतिष्ठित डोमेन की शक्ति का शायद ही कभी आह्वान करना चाहिए, और इसके बजाय, बाजार तंत्र का चयन करना चाहिए। यह सिद्धांत विशेष रूप से निजी निगमों के लिए भूमि अधिग्रहण पर लागू होता है। उस समय उद्योग को संबोधित करते हुए रमेश ने कहा था, “आप जमीन चाहते हैं? जाईए जा कर खरीद लीजिए। ”

इंडियास्पेंड द्वारा समीक्षा किए गए दस्तावेजों के अनुसार, हालांकि, गोड्डा में अपने प्रस्तावित बिजली प्लांट के लिए, अडाणी समूह ने 6 मई, 2016 और 2 अगस्त, 2016 को झारखंड राज्य सरकार को लिखा था, जिसमें जिले के दस गांवों में 2,000 एकड़ भूमि अधिग्रहण करने के लिए कहा गया था। मार्च 2017 में, सरकार ने कहा कि वह छह गांवों में 917 एकड़ जमीन अधिकृत करेगा। मोतिया, गंगटा, पटवा, माली, सोंडिहा और गायघाट। पहले चार गांवों में प्रशासन ने अभी तक 519 एकड़ निजी भूमि अधिग्रहण की है। प्लांट के लिए अगस्त 2018 में शेष दो गांवों में अधिग्रहण नोटिस समाप्त हो गया। गोड्डा की चीर नदी को जल स्रोत के रूप में उद्धृत करते हुए कंपनी ने अगस्त 2017 में प्लांट के लिए पर्यावरण मंजूरी हासिल की। अब यह कहता है कि वह पास के साहिबगंज जिले में गंगा से पानी खींचना चाहता है, और पानी के परिवहन के लिए 92 किलोमीटर की पाइपलाइन के लिए 460 एकड़ जमीन का अधिकार चाहता है। कंपनी कोयला परिवहन के लिए रेलवे लाइन के लिए 75 एकड़ भी चाहता है। अगर सरकार ने अडाणी समूह के अनुरोध को नहीं माना होता, तो कंपनी को जमीन खरीदने के लिए किसानों से संपर्क करना पड़ता था, और मुर्मू, हेम्ब्रम और अन्य ऐसे ग्रामीण तय करते कि अपनी जमीन बेचनी है या नहीं। लेकिन 24 मार्च 2017 को, एक 11-पेज नोट में, जिसका खुलासा झारखंड सरकार ने नहीं किया है, गोड्डा डीसी ने प्रस्तावित बिजली प्लांट को “सार्वजनिक उद्देश्य के लिए” घोषित किया , जिसका अर्थ है कि यह सरकार किसानों की जमीन का अधिकग्रहण अडाणी समूह के लिए करेगी। एलएआरआर अधिनियम बिजली उत्पादन और संचरण समेत कई बुनियादी ढांचे गतिविधियों को कवर करने के रूप में ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ को परिभाषित करता है। लेकिन ग्रामीणों ने बताया कि अडाणी समूह प्लांट में उत्पन्न सभी बिजली बांग्ला देश को बेच देगा। उत्तेजित चिंतामणि साह कई किसानों के विचारों को प्रतिबिंबित करते हुए कहते हैं , “अडाणी को लाभ। बांग्लादेश को लाभ । हमें कैसे लाभ मिलेगा? ” झारखंड सरकार की 2012 ऊर्जा नीति के अनुसार, राज्य में बने थर्मल पावर प्लांट द्वारा उत्पन्न बिजली के 25 फीसदी पर पहला अधिकार राज्य का है, चाहे तो राज्य खरीदे या न खरीदे। जिसका मतलब है कि प्लांट कानूनी रूप से सरकारी नीति द्वारा निर्धारित दरों पर 25 फीसदी बिजली सरकार को बेचने के लिए बाध्य है। हालांकि, अडाणी समूह गोड्डा प्लांट में उत्पन्न सभी बिजली बांग्लादेश को बेचना चाहता है। अडाणी समूह के साथ राज्य सरकार द्वारा हस्ताक्षरित एक फरवरी 2016 के एमओयू में कहा है कि सरकार “वैकल्पिक स्रोतों” से 25 फीसदी के बराबर बिजली बेचने के कंपनी के अनुरोध पर सहमत हो गई है।सरकार ने अडाणी समूह के साथ अपने एमओयू का खुलासा नहीं किया है। इंडियास्पेन्ड द्वारा प्राप्त फरवरी 2018 दस्तावेज मे इस “वैकल्पिक सोर्स से बिजली” का कोई विवरण नहीं है। पासी ने पूछे जाने पर कहा, “एमओयू कंपनी और राज्य सरकार के बीच है, मैं उस पर टिप्पणी नहीं कर सकती।” नाम न छापने का अनुरोध करते हुए इंडियास्पेंड से बात करने वाले अधिकारियों ने कहा कि कंपनी ने “स्पष्ट उत्तर” प्रदान नहीं किया है कि इस बिजली को कहां से और कब राज्य को बेचा जाएगा। अडाणी प्रवक्ता ने इस मुद्दे पर इंडियास्पेंड के सवालों का जवाब नहीं दिया है।

“वैकल्पिक स्रोत” के तर्क पर आदिवासी नेता और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, बाबूलाल मरांडी गुस्से में आ जाते हैं। वह पूछते हैं, “राज्य सरकार किसानों से जमीन लेकर अडाणी को इस आधार पर कैसे दे सकती है कि अडाणी हमें अन्य स्रोतों से 25 फीसदी बिजली बेचेगी? हम खुद बिजली खरीद सकते हैं। राज्य पहले से ही कर रहा है। हमें इसके लिए अडाणी की ज़रूरत क्यों है? ”

जून 2018 में Scroll.in के लिए अरुणा चंद्रशेखर की एक जांच से पता चला कि राज्य सरकार ने एमओयू पर हस्ताक्षर करने के महीनों बाद अडाणी से महंगी बिजली खरीदने के लिए अक्टूबर 2016 में अपनी ऊर्जा नीति कैसे बदल दी थी। Scroll.in की रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ था कि इससे अडाणी समूह को किस तरह करोड़ों का लाभ मिलेगा।

अडाणी पावर प्लांट से उत्पन्न 1600 मेगावाट बिजली बांग्लादेश को बेची जाएगी। प्लांट लगाने के लिए अपने खेतों और सार्वजनिक जमीन को खोने वाले गांवों में एक या दो घंटे बिजली रहती है। लेकिन बिजली प्लांट एरिया में होती है। (दाएं)

बांग्लादेश के लिए बिजली उत्पन्न करने के लिए उपजाऊ कृषि भूमि के अधिग्रहण को “सार्वजनिक उद्देश्य” कहा जा रहा है, लेकिन प्लांट के लिए अपनी जमीन खोने वाले ग्रामीणों को या तो कम बिजली मिलती है या या कोई बिजली नहीं है। सूर्यास्त के बाद अडाणी के प्लांट निर्माण स्थल को रोशनी मिलती है, जबकि इसके आसपास के गांव अंधेरे में तैरते हैं। माली और गंगटा में, लोगों ने रात में रोशनी के लिए 50 रुपये प्रति लीटर मिट्टी का तेल खरीदते”, जैसा कि एक ग्रामीण ने बताया।

उन्हीं गांवों में से एक शिक्षक ने पंखा झेलते हुए कहा, “इससे पहले हम एक या दो घंटे के लिए बिजली प्राप्त करते थे। लेकिन चार महीने से, जब से इस कंपनी ने यहां अपना प्लांट बनाने का काम शुरू किया है, हमें कोई बिजली नहीं मिल रही है।”

उन्होंने कहा, “सरकार स्मार्ट कक्षाओं के लिए परिपत्र जारी कर रही है, और हमें प्रोजेक्टर का उपयोग करके सिखाने के लिए कह रही है। और यहां, बच्चों ने चार महीने से बिजली नहीं देखी है। ”

2016 की एक सरकारी रिपोर्ट में गोड्डा जिले का मुख्यालय शहर में ही 18-20 घंटे दैनिक बिजली कटौती होती है।

सामाजिक प्रभाव के मूल्यांकन पर मौन

एलएआरआर अधिनियम के लिए सरकार को अधिग्रहण की सामाजिक-आर्थिक लागत और संभावित लाभों के प्रभावों को देखने के लिए सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन (एसआईए) करने की जरूरत होती है।

कानून के तहत, एसआईए अध्ययन को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध दस्तावेज की तरह प्रासंगिक गांवों, सरकारी कार्यालयों और प्रासंगिक वेबसाइटों पर और ग्राम सभाओं में व्यापक रूप से प्रसारित और खुलासा किया जाना आवश्यक है। प्रस्तावित अधिग्रहण के साथ-साथ प्रभावित परिवारों की संख्या ,निजी, आम और सरकारी भूमि की सीमा का विस्तार से वर्णन करना चाहिए, जिसमें विस्थापितों की संख्या भी शामिल हो। आकलन के लिए भी आवश्यक है कि सरकार प्रभावित परिवारों के विचारों को शामिल करने के लिए जन सुनवाई करे।

इस मामले में एसआईए की रिपोर्ट ने कई आवश्यकताओं का उल्लंघन किया, जैसा कि हमने पाया। यह सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है, न ही यह किसी भी प्रासंगिक सरकारी वेबसाइटों, जैसे गोड्डा जिला वेबसाइट, या झारखंड भूमि विभाग की वेबसाइट पर रखा गया है। शाह जैसे कुछ ग्रामीणों ने अपने खास ‘स्रोत’ से एक प्रति प्राप्त की है।

हालांकि एसआईए ने कहा कि 5,339 ग्रामीण ‘परियोजना से प्रभावित’ थे। रिपोर्ट में मोतिया सुनवाई में केवल तीन ग्रामीणों और बक्सरा में 13 के विचारों का दस्तावेज है। सभी विचार परियोजना का पक्ष लेते हैं और एक-दूसरे को प्रतिबिंबित करते हैं। सुनवाई के एसआईए के खाते में किसी भी आदिवासी या दलित निवासियों के विचारों का कोई रिकॉर्ड नहीं है।

चार गांवों में, जहां सरकार अडाणी समूह के लिए भूमि अधिग्रहण कर रही थी, कई स्थानीय लोगों ने कहा कि 6 दिसंबर, 2016 को, एसआईए की जन सुनवाई के दिन उन्हें सुनवाई में भाग लेने से रोक दिया गया था। दलित किसान देवेंद्र पासवान ने कहा, “सुनवाई स्थल के आसपास बड़ी संख्या में पुलिस की तैनाती थी।”

ग्रामीणों ने कहा कि केवल उन लोगों को, जिनके पास कंपनी एजेंटों द्वारा जारी किया गया पीला कार्ड या ग्रीन कार्ड था, पुलिस द्वारा अंदर जाने की अनुमति दी गई थी। माली, मोतिया, पटवा और गंगटा में कई ग्रामीणों ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने उन्हें रोक दिया था, बावजूद इसके कि उनके पास मतदाता आईडी और आधार कार्ड थे।

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उन्होंने आरोप लगाया कि, उनके विरोध करने पर पुलिस ने लाठी-चार्ज किया और आंसू गैस छोडे। माली निवासी राकेश हेम्ब्रम ने कहा कि उनके पास बाहर इक्ट्ठा होने और विरोध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। हेम्ब्रम ने याद किया, “अगले दिन स्थानीय पेपर ने हमारे विरोध में उठाए हुए हाथों की एक तस्वीर छापी, लेकिन कहा कि ग्रामीण जमीन दने के समर्थन में हैं।” कई लोगों ने न्यूजलांड्री रिपोर्टर अमित भारद्वाज को बताया कि कैसे दिसंबर 2016 में, महिलाओं सहित कई ग्रामीणों को पीटा गया और एसआईए सुनवाई स्थल तक जाने से रोक दिया गया। मोतिया में ग्रामीणों के खिलाफ पुलिस हिंसा को वीडियो में कौद करने वाले एक स्थानीय पत्रकार ने भारद्वाज से कहा कि पुलिस ने वीडियो को मिटाने के लिए उसे मजबूर किया ।
निवासियों का कहना है कि उन्हें एसआईए जन सुनवाई से बाहर रखा गया था

झारखंड सरकार ने झारखंड स्थित संस्थानों और एसआईए आयोजित करने के लिए क्षेत्र के सिद्दो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय समेत सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को सूचीबद्ध किया है। लेकिन अडाणी प्लांट के एसआईए के लिए एएफसी इंडिया लिमिटेड नामक मुंबई स्थित परामर्श फर्म को जिम्मेदारी दी गई थी। एसआईए में, न तो एएफसी परियोजना की सामाजिक-आर्थिक लागत और न ही स्थानीय लोगों पर इसके प्रभाव का विवरण मिलता है,जो जरूर होना चाहिए था।

उदाहरण के लिए, एसआईए प्राथमिक जानकारी छोड़ देता है, जैसे क्षेत्र में कृषि आय, भूमि-स्वामित्व, लैंडहोल्डिंग पैटर्न, सिंचित और बहु फसल भूमि की सीमा, जमीन न रहने के बाद आर्थिक नुकसान, महिलाओं और बच्चों पर प्रभाव, खेत बटाईदार और कृषि मजदूरों की स्थिति, सामान्य संपत्ति संसाधनों की सीमा जैसे कि चराई के मैदान और जल निकायों और उन पर नुकसान के प्रभाव। एसआईए का उल्लेख है कि 97 फीसदी निवासी कृषि पर निर्भर हैं, लेकिन इस बात का कहीं उल्लेख नहीं है कि प्लांट में अपनी जमीन खो देने के बाद वे कैसे रहेंगे।

एसआईए ने नौ गांवों में “प्रभावित परिवारों” की संख्या 841 बताई है। इसमें केवल भूमिधारक शामिल हैं। लेकिन भूमि अधिग्रहण के चार गांवों में सरकारी आंकड़ों में अब तक 1,328 भूमिधारक हैं।

एसआईए यह भी दावा करता है कि इस बिजली प्लांट से ‘शून्य विस्थापन’ होगा और यह भी कहा जा रहा है कि आबादी भूमि अधिग्रहण की साइट से “बहुत दूर” हैं। हालांकि इस तरह के कथन का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन, सरकार के दस्तावेज भी अडाणी समूह द्वारा किए गए दावों को दोहराता है। साथ ही साथ जिले के अधिकारियों का दावा है कि परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण से कोई भी विस्थापित नहीं होगा। गोड्डा डीसी के द्वारा मार्च 2017 के नोट में अडाणी के प्लांट के लिए “सार्वजनिक उद्देश्य” दर्ज है परियोजना से “शून्य विस्थापन” की बात कही गई है।

लेकिन हकीकत कुछ और है। उदाहरण के लिए, माली के संथाली परिवार, जिन्होंने 31 अगस्त, 2018 को अधिग्रहण का विरोध किया, उनकी पूरी जमीन प्लांट के लए अधिगृहीत होना है। उनके घर खेतों के पास हैं। सीता मुर्मू कहती हैं, “वे आज हमारे घरों को छू नहीं रहे हैं,” लेकिन बिना किसी भूमि के, हम यहां क्या करेंगे और हम कब तक जीवित रह सकते हैं? हमें ये जगह छोड़ने के लिए मजबूर किया जाएगा।”

अधिकारियों और अडाणी कर्मियों का दावा है कि बिजली प्लांट के लिए अधिग्रहित भूमि से किसी का भी विस्थापन नहीं होग। लेकिन संयंत्र स्थल से दलित और आदिवासी ग्रामीणों, जैसे कि पुनम सुगो देवी और कारू लय्या (दाएं) के घर घिरते हैं, । देवी पूछती है, “गरीबों को कहां जाना चाहिए?”

मोतिया के आस-पास के गांव में, बिजली प्लांट की जगह पर, भूमि को समतल किया जा रहा था और निर्माण शुरू हो गया था। निर्माण कार्यकर्ता दलित और आदिवासी ग्रामीणों, जैसे पुनम सुगो देवी और कारू लय्या के घरों की दीवारों से सटे प्लांट की सीमा को चिह्नित कर रहे थे।

देवी ने कहा, “कंपनी ने हमें चारों ओर से घेर लिया है। गरीब कहां जाएंगे?”

देवी के पड़ोसी दीपक कुमार यादव ने कहा, “अडाणी के लोग हमें बताते रहते हैं कि हमें यहां से निकाल दिया जाएगा, यह अब सरकार का जमीन है। कोई जानकारी नहीं है कि वे हमें कहां फेंक देंगे।” साइट पर निर्माण कर्मियों ने पुष्टि की कि वे इस हिस्से को “अभी” नहीं ले रहे हैं, लेकिन जैसा कि एक ने बताया, “यह जल्द ही होगा”।

एक भूमिहीन बटाईदार यादव ने कहा कि वे भूमि अधिग्रहण से आर्थिक रूप से प्रभावित हुए हैं। काम करने के लिए खेत अधिग्रहित हो गया है – एसआईए रिपोर्ट में इन स्थितियों को अनदेखा किया गया ।

यादव ने कहा, “मैं भूमिहीन आदमी हूं और यहां पर जो खेती करते थे, वो सब ले लिया है। अभी बेरोजगारी पर बैठे हुए हैं, न तो खेती हो रहा है, न तो खेत में रोपाई हो रहा है। घर में बैठे हैं और काम भी करने जाते हैं तो बोलता है कि तुमलोग से अभी काम नहीं होगा……अभी सीजन था, हम कटनी करते, पैसा आता लेकिन अभी तो सब जमीन कंपनी का आदमी ले लिया…यहां का आदमी क्या करेगा। मजबूर होकर बैठे हैं।”
बटाईदार और भूमिहीन मजदूरों ने भूमि अधिग्रहण के बाद काम और आय खो दी है।

जब सामाजिक प्रभाव प्रबंधन और पुनर्वास योजनाओं के विवरण के संबंध में पूछा गया ( एलएआरआर अधिनियम के अनुसार इन्हें सार्वजनिक डोमेन में होना आवश्यक है ), तो गोड्डा के डीसी पासी ने इनकार कर दिया। उन्होंने कहा “वह गोपनीय है। इसमें तीसरे पक्ष की जानकारी है।” भूमि अधिकार विशेषज्ञ उषा रामनाथन एक उच्चस्तरीय समिति (2013-14) की सदस्य थी। यह समिति भारत के निर्धारित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक, स्वास्थ्य और शैक्षिक स्थिति पर रिपोर्ट करने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा बनाई गई थी। उन्होंने कहा कि झारखंड सरकार जिस तरह से किसानों की आजीविका और जमीन ले रही थी , उससे पता चलता है कि “कौन या कैसी जनता का विचार ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ में विकृत हो गई है।”

सहमति के प्रश्न

एलएआरआर अधिनियम के तहत, भले ही सरकार एक निजी परियोजना को “सार्वजनिक उद्देश्य” के रूप में घोषित करे, फिर भी इसे कम से कम 80 फीसदी भूमिधारकों की “सहमति” चाहिए।

7 मार्च और 8 मार्च, 2017 को, जिला अधिकारियों ने नौ गांवों में एक के बाद एक, नौ सहमति बैठकें निर्धारित कीं, जहां भूमि अधिग्रहण की जानी थी। प्रशासन के अनुसार, इन बैठकों में, और 15 दिनों की “अनुग्रह अवधि” के दौरान, 84 फीसदी भूमि मालिक अपनी जमीन सरकार को देने के लिए सहमत हुए। इस तरह सरकार ने सहमति प्रक्रिया एक पखवाड़े के भीतर समाप्त कर दी ।

अगले दिन, 23 मार्च, 2017 को, गोड्डा के सरकारी वकील ने जिला प्रशासन को कानूनी राय प्रदान की: चूंकि 80 फीसदी से अधिक भूमि मालिकों ने सहमति दी थी, इसलिए संथाल परगना टेनेंसी अधिनियम ( एक कानून जो आदिवासियों की रक्षा करता है ) का “प्रभाव खत्म हो गया है” और “क्षेत्र एसपीटी अधिनियम के तहत आने के बावजूद भूमि अधिग्रहित की जा सकती है”। 24 मार्च, 2017 को, गोड्डा प्रशासन ने 11 पेज का नोट जारी किया कि सरकार अडाणी के लिए 917 एकड़ भूमि अधिग्रहण करेगी। 24 मार्च और 25 मार्च, 2017 को, उसने अधिग्रहण के लिए एलएआरआर नोटिफिकेशन जारी किए किया?। 1949 में संताल परगना टेनन्सी अधिनियम (एसपीटी) का उद्देश्य तत्कालीन संताल परगना जिले में कई तरह के प्रतिबंध लगाकर आदिवासियों की जमीनों पर हो रहे कब्जे को रोकना था। संताल परगना जिला अब गोड्डा समेत छह जिलों में बंटा हुआ है। जमीन संबंधी मामलों के विशेषज्ञ और रांची के वकील रश्मि कात्यायन बताते हैं, “ सरकार की ओर से किसी कंपनी को जमीन हस्तांतरित करने का कोई प्रवधान एसपीटी एक्ट में नहीं है। ”

कात्यायन जोर देकर कहते हैं कि गोड्डा के सरकारी अधिवक्ता का यह कहना गलत होगा कि इस अधिनियम का प्रभाव खत्म हो गया है। “ ऐसा कहना एक कानूनी झूठ था जो अडाणी को फायदा पहुंचाने के लिए कहा जा रहा था।”

कात्यायन ने कहा कि एसपीटी अधिनियम के तहत गांव की आम संपत्ति (गैरमजरुआ) भूमि जैसे कि गांव में गोचर भूमि पर गांव के प्रधान को हक दिया गया है न कि सरकार को। लेकिन ऐसी आम भूमि भी प्रशासन द्वारा ली गई है और 30 साल के पट्टे पर अडाणी समूह को दिया जा रहा है, जबकि किसानों की भूमि कंपनी के नाम पर स्थानांतरित किए जा रहे हैं।

समझौता ज्ञापन, एसआईए रिपोर्ट और “सार्वजनिक उद्देश्य” तर्क के साथ, सरकार ने सहमति बैठक से संबंधित के रिकॉर्डिंग ,आधिकारिक दस्तावेज और मिनट सार्वजनिक नहीं किए हैं। स्वतंत्र रूप से 84 फीसदी स्थानीय लोगों से सहमति के सरकार के दावे को सत्यापित करना मुश्किल है, क्योंकि इसमें सहमति प्रक्रिया को तोड़ा-मरोड़ा गया है।

एलएआरआर अधिनियम के नियमों के मुताबिक, जिसे 2015 में जारी झारखंड सरकार के अपने एलएआरआर नियमों में दोहराया गया है, भूमि मालिक की सहमति या असहमति को जिला अधिकारी द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिए। इंडियास्पेंड ने जिन किसानों से बातचीत की, उनमें से किसी के पास ये सत्यापन नहीं था।

इसके बजाए, कई भूमिधारकों, विशेष रूप से आदिवासियों और दलितों ने कहा कि उन्होंने बार-बार अपनी भूमि देने के लिए इंकार कर दिया था। गंगटा में, निवासियों ने जिला प्रशासन, राज्य के ऊर्जा विभाग और राज्यपाल के कार्यालय को भेजे गए ग्राम सभा प्रस्ताव की प्रतियां दिखाई।

31 अगस्त, 2016 को आयोजित बैठक में प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि “ग्राम सभा ने सामूहिक रूप से निर्णय लिया है कि अडाणी प्लांट को किसी भी तरह से जमीन नहीं दिया जाएगा। इसके लिए जान भी देना पड़े तो हम ग्रामीण तैयार हैं। ” यह संकल्प 2 सितंबर, 2016 को जिला प्रशासन द्वारा प्राप्त हुए और इसका प्रमाण भी है।

अगस्त 2016 में एक ग्राम सभा संकल्प ने बिजली प्लांट के लिए अडाणी को जमीन देने का विरोध किया। गोड्डा जिला प्रशासन द्वारा सितंबर 2018 के नोटिस (दाएं) ने ग्रामीणों को बिजली प्लांट के लिए गैरमजरुआ भूमि के लिए सहमति देने को कहा।

कई ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि सरकार द्वारा बुलाई गई सहमति बैठकें त्रुटिपूर्ण और चालाकी से काम निकालने के लिए बुलाई गई थीं। चिंतामणि शाह ने कहा, “हमने उनका बहिष्कार किया, और हमारी सहमति कभी नहीं रही है।” उन्होंने सहमति कार्यवाही के लिए सूचना-के अधिकार अनुरोध दायर किए और उनको कहा गया कि सभी रिकॉर्ड वेबसाइट पर रखे गए हैं। शाह ने कहा, “वहां कुछ भी नहीं था।” इंडियास्पेंड ने इसकी पुष्टि की और पाया कि वास्तव में यह सच है।

परियोजना के आस-पास आधिकारिक अस्पष्टता कई एलएआरआर प्रावधानों के साथ-साथ झारखंड के 2015 एलएआरआर नियमों का उल्लंघन करती है। ये नियम बताते हैं: “जितनी जल्दी हो सके, सरकार एक समर्पित, उपयोगकर्ता के अनुकूल वेबसाइट तैयार करेगी जो एक सार्वजनिक मंच होगा जहां प्रत्येक अधिग्रहण मामले का पूरा वर्कफ़्लो होस्ट किया जाएगा, निर्णय लेने, कार्यान्वयन और लेखा परीक्षा के प्रत्येक चरण को ट्रैक किया जाएगा।” यह नहीं हुआ है।

अधिकारियों ने कहा कि ज्यादातर जमीन मालिकों ने मुआवजा लिया है, जो सहमति प्रदर्शित करता है। कई ग्रामीणों ने एक अलग परिप्रेक्ष्य की पेशकश की। मोतिया में एक दलित भूमिधारक ने प्रतिशोध के डर से नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा कि सरकार ने अडाणी प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण को स्वतंत्र और सूचित सहमति के परिदृश्य के बजाय एक साजिशपूर्ण कार्य के रूप में प्रस्तुत किया है।

उन्होंने कहा, “मेरी जमीन के चारों ओर चार तरफ ऊपरी जातियों के लोगों की जमीन है। अडाणी के लोगों ने मुझे बताया कि मुझे जमीन देनी चाहिए, अन्यथा मैं फंसुंगा और कुछ भी नहीं प्राप्त करूंगा। मैंने अपनी जमीन दी और असहाय हालत में मुआवजा लिया।”

इस वर्ष की शुरुआत में अपने खेत खोने वाले सिकंदर साह का कहना था: “अडाणी के लोगों ने मुझे बताया कि अगर मैं सहमति नहीं दूं, तो मेरी जमीन चली जाएगी और कोई पैसा भी नहीं मिलेगा। मैंने बहुत अंत तक खुद को बाहर रखा और अंततः मुझे पीछे हटना पड़ा। ” साह ने कहा कि “कंपनी के कर्मी मुझे अपने कार्यालय ले गए, जहां उन्होंने कुछ दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवाए- लाचारी की हालत में मुझे करना पड़ा।”

मोतिया में एक दलित किसान, रामजीवन पासवान ने आरोप लगाया कि “अडाणी कर्मियों ने जबरन फरवरी, 2018 में मेरी जमीन अधिग्रहण कर ली।“ उन्होंने बताया, “अडाणी के अधिकारियों ने मुझे जातिवादी गाली देकर मुझ पर जोर दिया। कहा कि अगर तुम अपनी जमीन नहीं देते हो, तो तुम्हें इसी जमीन में गाड़ देंगे।” उन्होंने अडाणी कर्मियों दिनेश मिश्रा, अभिमन्यु सिंह और सत्यनारायण राउत्रे के खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम के तहत मामला दायर किया। पासवान ने कहा कि नौ महीने बाद भी पुलिस उनका बयान रिकॉर्ड कर रही है। भूमि के लिए भूमि मुआवजा शायद अडाणी समूह के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए झारखंड सरकार के एलएआरआर अधिनियम के उपयोग का सबसे गंभीर प्रभाव, आदिवासी और दलित भूमि मालिकों के लिए अधिनियम में निर्धारित भूमि-के-लिए-भूमि मुआवजे सिद्धांत को विवादास्पद अर्थ में समझने का नतीजा है।

अधिनियम की दूसरी अनुसूची में खंड दो में कहा गया है: “.. परियोजना में, भूमि खोने वाला व्यक्ति अगर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से है तो अधिग्रहित भूमि के बराबर या 2.5 एकड़ भूमि, जो भी कम हो, के बराबर भूमि प्रदान की जाएगी। ” शेड्यूल कहता है, यह मुआवजा पैसे के अलावा है।

14 जून, 2017 को, गोड्डा जिला प्रशासन ने अधिनियम के कई मुआवजे और पुनर्वास प्रावधानों को लागू करने के मार्गदर्शन के लिए राज्य सरकार को लिखा, विशेष रूप से दूसरे अनुसूची का उल्लेख और साथ ही अधिनियम के धारा 41 की बात करते हुए जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षा उपायों से संबंधित है।

1 सितंबर, 2018 को, राज्य सरकार के निदेशक (भूमि सुधार) के.. श्रीनिवास ने गोड्डा के अधिकारियों से कहा कि अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के लिए भूमि-के लिए-भूमि मुआवजा खंड “केवल सिंचाई परियोजनाओं पर लागू होता है।” इस तर्क के लिए श्रीनिवास ‘भूमि के लिए भूमि’ मुआवजे के उस हिस्से में गए, जहां कहा गया है कि भूमि सिंचाई परियोजनाओं में जहां तक संभव हो, जमीन के बदले जमीन दिया जाएगा।

श्रीनिवास अब भूमि सुधार निदेशक नहीं हैं। उनके उत्तराधिकारी, ए मुथू कुमार ने इंडियास्पेंड को बताया: “मैं इस पर टिप्पणी नहीं कर सकता। यह सरकार का नीति निर्णय है। ”

जमीन के लिए जमीन मुआवजा सिद्धांत महत्वपूर्ण है, खासकर अनुसूचित जनजातियों के लिए। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाती आयोग के अध्यक्ष नंदकुमार साई ने सितंबर 2018 में एक भूमि अधिकार सेमिनार के दौरान इंडियास्पेन्ड को बताया, “आदिवासी भूमि, जंगल और प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं।” गोड्डा के गांवों में संतालों के विचारों को प्रतिबिंबित करते हुए, साई ने कहा कि, “भूमि उनके जीवन, उनकी संस्कृति और उनकी पहचान का आधार है। ” भूमि संसाधनों, जनजातीय मामलों, और पर्यावरण और जंगलों के केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकारियों के साथ आयोजित साई की एक बैठक के बाद, 29 अक्टूबर, 2018 में, जनजाती आयोग ने एलएआरआर अधिनियम के भूमि के लिए भूमि-मुआवजे को उन आदिवासियों को देने के लिए कहा, जिनको सरकार बाघ अभयारण्य से विस्थापित करती है। सरकार को कहा गया कि उन्हें कम से कम 2.5 एकड़ जमीन मुआवजे के रूप में दिया जाए ।

रामनाथन ने कहा कि झारखंड सरकार के अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को जमीन के लिए भूमि मुआवजे से इनकार करने का निर्णय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, यानी समानता का कानून। चाहे यह एक सिंचाई परियोजना हो या बिजली प्लांट, परियोजनाओं में विस्थापन का तथ्य समान है। तो आप एक मामले में कैसे भूमि के साथ क्षतिपूर्ति कर सकते हैं, लेकिन दूसरे में नहीं? ”

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रामनाथन ने कहा आदिवासी सामूहिक संघर्ष के कई दशक के बाद झारखंड को 2000 में एक अलग राज्य के रूप में गठित किया गया था। और झारखंड सरकार आदिवासियों को इस तरह विस्थापित कर रही है, ” ये विशेष रूप से विडंबनापूर्ण है।“ जब इंडियास्पेंड ने भूमि सुधार निदेशक कुमार से पूछा, सिंचाई परियोजनाओं को छोड़कर, क्या झारखंड सरकार के सभी एलएआरआर परियोजनाओं में भूमि के बदले भूमि मुआवजे से इनकार करेगी, तो कुमार ने कहा, “यह फिलहाल गवर्मेंट सर्कुलर है। मैं किसी भी भविष्य के सर्कुलर पर टिप्पणी नहीं कर सकता।”

गोड्डा की बात करते हुए,जब उनसे पूछा गया कि कितने दलित और आदिवासी परिवार अडाणी समूह में अपनी जमीन खो रहे हैं तो अधिकारियों का कहना था कि उन्होंने इस पर “जाति-गत विश्लेषण” नहीं किए हैं।

झारखंड में भूमि अभिलेख 1932 से अपडेट नहीं किए गए हैं। एसआईए रिपोर्ट समेत परियोजना के दस्तावेज अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं। अधिग्रहण के “841 प्रभावित परिवारों” के एसआईए के मुताबिक, (यह केवल भूमि खोने वालों की गणना कर रहा है), दलित और आदिवासी परिवार संख्या 130, या लगभग 15 फीसदी है। लेकिन इलाके में जाने के बाद इस डेटा पर सवाल उठते हैं।

उदाहरण के लिए, एसआईए में माली गांव में प्रभावित आदिवासी परिवारो की संख्या “एक” बताई गई है। लेकिन जमीन का एक टुकड़ा, जो 31 अगस्त 2018 में विवादास्पद अधिग्रहण का लक्ष्य था, उसमें से छह भूमि मालिक परिवार हैं। तीन पीढ़ियों में लगभग 40 लोग इस भूमि पर निर्भर हैं। लेकिन एसआईए में इस जमीन के वंशज के बारे में लिखा है कि “ रिपोर्ट है कि वे वंशहीन है।“

भूमि के इस खंड के शीर्षकधारकों में अनिल हेम्ब्रम जैसे किसान शामिल हैं। किसानों ने यहां कहा कि वे एसपीटी अधिनियम की वजह से अपनी भूमि के जबरन अधिग्रहण के लिए मुआवजे के रूप में पेश किए गए पैसे का उपयोग वैकल्पिक भूमि खरीदने के लिए नहीं कर पाएंगे। अधिनियम में इस क्षेत्र में कृषि भूमि की खरीदी-बिक्री पर कई तरह से प्रतिबंध है। हेम्ब्रम ने कहा, “अगर सरकार हमारी जमीन लेती है, तो हम और हमारी आनेवाली पीढ़ियां हमेशा के लिए भूमिहीन हो जाएंगे । हमारा आदिवासी अस्तित्व खत्म हो जाएगा।”
आदिवासी किसानों ने समझाया कि अधिग्रहण के बाद वे हमेशा के लिए भूमिहीन क्यों बन जाएगें

रामनाथन ने कहा, “हमारी रिपोर्ट समेत कई अध्ययनों से पता चला है कि जिन समुदायों, विशेष रूप से आदिवासियों के जीवन उनके पर्यावास के साथ जुड़े हुए हैं, उनके पास निर्वाह क्षमता है, क्योंकि उनके पास प्राकृतिक संसाधन हैं। यदि आप इनसे इन्हें अलग कर देते हैं, तो आप इन्हें हर तरह से कमजोर करते हैं।”

गोड्डा में, यह कई लोगों के लिए एक वास्तविकता बन चुका है।

मोतिया में एक दलित किसान सुमित्रा देवी ने कहा, “जो हमारा है (जमीन) हम उसके पास भी नहीं जा सकते हैं। कंपनी ने इसके चारों ओर एक बाड़ बना दिया है।” उन्होंने आरोप लगाया कि अडाणी कर्मियों ने परिवार को अपनी जमीन छोड़ने की धमकी दी और अंततः जबरन उनकी जमीन को फरवरी में ले लिया। देवी ने कहा कि उनके परिवार ने इस आधार पर मुआवजा नहीं लिया है कि उन्होंने जमीन देने के लिए सहमति नहीं दी थी।

देवी ने कहा, “हमें पैसे का मोह नहीं है, हमें जमीन का मोह है। कैसे भी करके हमारी जमीन वापस दिलवा दीजिए।”

देवी ने कहा कि जमीन चली गई, और अब उनका परिवार अपने लिए और अपनी 10 गायों और बछड़ों का ख्याल रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं। देवी ने बताया कि वह गैस्ट्रिक और मधुमेह से पीड़ित हैं और मेडिकल टेस्ट और दवाइयों के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है।

8 अक्टूबर, 2018 को, इस बातचीत के कुछ दिनों बाद देवी की मृत्यु हो गई।
हमसे बात करने के कुछ दिनों बाद जबरन भूमि अधिग्रहण का विवरण देते वाली दलित किसान सुमित्रा देवी की मृत्यु हो गई।

(चित्रांगदा चौधुरी एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। चौधुरी आदिवासी और ग्रामीण समुदायों, भूमि और वन अधिकारों, और संसाधन न्याय से जुड़े मुद्दों पर काम करती हैं।

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 01 दिसंबर 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है:

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